जीव खान उर्फ प्राण खान की उत्पत्ति
मेरे एक परम मित्र है जो मित्र तो क्या है, एक आफत है। मित्र वो होता है जो सुख दुख में काम आते हैं, ये महाशय हर घड़ी काम तो आते हैं लेकिन उल्टे सीधे सवाल करके जो जान खाते हैं ना वो चिड़चिड़ा कर देती है इसलिए एक दिन गुस्से में मैंने इनका नाम जान खान कर दिया। अपना नया नामकरण सुनकर इन्हें गुस्सा आना चाहिए था लेकिन बजाय गुस्से के फिर जान खाना शुरू कर दिया और कहा कि “वाह सूफ़ी साहब! नाम भी रखा तो अपने मज़हब का? मुझे क्यों मज़हब का रंग देते हो भला, मैं तो नास्तिक हूँ नास्तिक। ‘
मैंने चौंकते हुए कहा कि मैंने कहा मजहब के हिसाब से नाम रखा है तुम्हारा?
तो बोले कि जान और खान दोनों उर्दू लफ्ज़ है तो क्या ये आपके मजहब के नाम नहीं है?
उनकी बाते सुनकर मैंने अपना सर पकड़ लिया और कहा अरे भाई ये एक आम कहावत है जो सर्व समाज में अत्यधिक प्रचलित हैं, इसमें जात पात कहाँ से आ गई?
तो वह बोले कि नहीं दोनों शब्द उर्दू वाले है।
मैंने कहा ठीक है तो फिर जान खान की जगह जीव खान कर देते हैं?
लेकिन सूफ़ी साहब! जीव तो विज्ञान होता है, जीव विज्ञान। मैं क्या वैज्ञानिक हूँ?
तुम और वैज्ञानिक! हूं… अमा यार क्यों गंदी मज़ाक करते हो वैज्ञानिकों की। अच्छा एक काम करते हैं जान और जीव का एक और पर्यायवाची है, प्राणी। तो तुम प्राण खान हो यानी प्राण पीने वाले, जान खाने वाले और जीव खाने वाले। अब ठीक है प्राण खान जी?
वो तो ठीक है सूफ़ी साहब लेकिन मेरा ये नामकरण करके करोगे क्या?
कुछ खास नहीं प्राण खान उर्फ जीव खान जी, बस आपको अपनी कलम की नोंक पर बैठा कर दुनिया भर की सैर कराऊंगा।
ठीक है सूफ़ी साहब लेकिन नामवरी मे कोई कमी नहीं आनी चाहिए।
ठीक है प्राण खान जी कल मिलते हैं।
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