समीक्षा : एक देश बारह दुनिया (लेखक-शिरीष खरे)
यात्रा वृतांत वाला रिपोर्ताज
समीक्षक : लखन सालवी
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मैं इस किताब की समीक्षा ठीक उस फोरमेट में कर रहा हूं जिस फॉरमेट में लेखक ने लेखन किया है। 😊 Shirish Khare
‘‘आज से पहले तक लगभग हर किताब/उपन्यास को मैं एक-दो या तीन सीटिंग में पढ़ता रहा हूं। आचार्य चतुरसेन के उपन्यास ‘‘गोली’’ को सिंगल सिटिंग में पढ़ा था लेकिन ‘‘एक देश बारह दुनिया को पढ़ने में डेढ़ माह लग गया !’’
लगभग 6 महीने से सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म शिरीष खरे के लिखे रिपोर्ताज ‘‘एक देश बारह दुनिया’’ से अटे पड़े है। शिरीष खरे के फेसबुक टाइमलाइन पर तो इसके सिवा कुछ ओर दिखाई ही नहीं दे रहा है। इस रिपोर्ताज के टाइटल ने मुझे आकर्षित किया लेकिन मेरा अनुभव रहा है कि जो शै मुझे आकर्षित करती है वो कई बार मुझे ठग भी लेती है, इसलिए मैंने इसे नजरअंदाज किया। इस किताब के कवर पेज को देखने से पहले मैंने कभी शिरीष खरे का नाम नहीं सुना था। इस किताब को पढ़ने की जिज्ञासा तब जगी, जब जुलाई 2021 में एक दिन लेखक भंवर जी मेघवंशी ने बातचीत के दौरान कहा कि शिरीष खेर की ‘‘एक देश बारह दुनिया’’ बहुत शानदार है, इसे पढ़ा जाना चाहिए। इस बातचीत के करीब दो माह बाद मैंने किताब ऑर्डर की। किताब हाथ में आने के बाद लगभग डेढ़ माह तक पैकेट में ही रही। मैं सिंगल सिटिंग में इसे पढ़ना चाहता था, लेकिन सिंगल सिटिंग में पढ़ने का समय ही नहीं मिला। इस तरह वक्त बीतता गया और किताब पैकेट में पैक पड़ी रही।
14 नवम्बर को कुछ दिन के लिए यात्रा का योग बना। सफर में किताब पढ़ूंगा, यह सोचकर किताब को पैकेट से मुक्त किया। तय किया कि यात्रा से लौटने तक पूरी किताब पढ़नी है।
बस में बैठे हुए मैंने किताब निकाली और पढ़ने लगा। (आप सोच सकते है कि ऊपर के दोनों पैरेग्राफ की समीक्षा में जरूरत नहीं थी, ऐसे ही कई पैरेग्राफ की किताब में जरूरत नहीं थी। लेकिन तारतम्य बैठाने के लिए लिहाज से वो ठीक है। है ना ?)
शिरीष खरे की बारह दुनिया महाराष्ट्र, गुजरात, छतीसगढ़ और राजस्थान में बसी है। मैं शिरीष खरे की बारह दुनिया की यात्रा करते हुए अपनी यात्राओं में खो जाता था, जो मैंने महाराष्ट्र, गुजरात, छतीसगढ़ और राजस्थान में की थी। मैंने कई दुनिया देखी इसलिए लेखक की दुनिया में भ्रमण करते हुए मैं अपनी उन दुनिया में गोते लगाने लग जाता था . . . इसलिए भी यह रिपोर्ताज पढ़ने में देरी हुई। 😊
निश्चित तौर पर आम पाठकों की भी एक से अधिक दुनिया है इसलिए वे भी पुनः भ्रमण कर सकते है। 😊
शिरीष खरे एक पत्रकार है और पत्रकारिता के दौरान विभिन्न मुद्दों पर देश भर के कुछ इलाकों में इनके द्वारा की गई रिपोर्टिंग को इन्होंने अपनी किताब का हिस्सा बनाया है। इस रिपोर्ताज में 12 शीर्षक से 12 रिपोर्ताज लिखे है। इनमें देश के 12 भू भागों के वंचित व अंतिम पायदान से भी नीचे खड़े लोगों के दुःखों से भरे संघर्षमय जीवन को बताया है। किताब को पढ़ते हुए इंसानियत जाग जाती है, इसांन है तो दिल की धड़कने बढ़ जाती है और बैचेनी होने लगती है। कई बार पढ़ते-पढ़ते ऊपर की ओर देख लिया तो आंखें ऊपर ही ठहर जाती है और आपकी आंखों में तस्वीरें तैरने लगती है संगम टेकरी की मीराबेन की टूटती झौपड़ी की, तस्वीरें तैरने लगती है मेलघाट की दुखयारी मां की, तस्वीरें तैरने लगती है रस्सी पर करतब दिखाती मदारी बालिका की, तस्वीरें तैरने लगती है पायलीखंड गांव की जेमनी बाई की जो कह रही है – जमीन का एक टुकड़ा दिलवा दो। और आप इनके बारे में सोचते सोचते सो जाते है। कई बार आप इन बारह दुनिया के नारकीय हालातों को ठीक करने के उपाय पर विचार करने लगेंगे और विचारों से बाहर आने की बजाए आप नींद की आगोश में चले जायेंगे। . . . . कुल मिलाकर लेखन ऐसा है कि पढ़ते-पढ़ते काल्पनिक दृश्य स्वतः ही आपके अक्षु पटल पर चलने लगते है। पढ़ते हुए आपको लगेगा कि आंखों के सामने फिल्म चल रही है।
जिस तरह से शिरीष खरे ने एक देश के बारह भूभाग को बारह दुनिया बताया है। मुझे लगता है ये नाकाफी है। आप अपने रिपोर्ताज के लिए देश को महज बारह दुनिया में नहीं बांट सकते है, लेखक ने जिस दृष्टिकोण से देश को बारह दुनिया में बांटा है, उस दृष्टिकोण के अनुसार तो भारत में 100 से भी अधिक दुनिया है। हालांकि शिरीष खरे 17 जुलाई 2017 को पुणे के रेल्वे स्टेशन पर उतरे थे . . . शायद शेष दुनिया को अगले रिपोर्ताज में बतायेंगे।
बहरहाल 2008 से 2017 के बीच के रिपोर्ताज में बताई गई ‘‘बारह दुनिया’’ को इस तरह से देखिए . . .
पहली दुनिया (महाराष्ट्र): इसमें अतिरंजना है।
‘‘वह कल मर गया’’ . . . कुपोषण से मर जाना उस इलाके में आम बात है, जिस इलाके में जाकर लेखक ने रिपोर्टिंग की। इस शीर्षक से लिखे रिपोर्ताज में महाराष्ट्र के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र के मेलघाट, सलीता, सिमोरी, बागलिंगा, चिखलदरा गांव सहित इस क्षेत्र में व्याप्त कुपोषण व कुपोषण के विभिन्न पहलुओं को दर्शाया है। इसमें बस्तियां उजाड़ने के दर्द व विस्थापन और पुर्नवास की हकीकत को बहुत ही बारीकी से उकेरा गया है।
मैं जब इसे पढ़ने लगा तो लेखक द्वारा गांवों के बीच दूरी और अपनी यात्रा की लंबाई के बारे में दिए गए ब्यौरों से परेशान हो गया। पहली दुनिया के रिपोर्ताज के पहले चैप्टर को पढ़कर लगा कि – ‘‘ठगा गया हूं मैं’’। कई बार पुस्तक को फैंक कर सो गया। लेखक ने बीच-बीच में लिखा है – ‘‘चिखलदरा से सवा सौ किलोमीटर दूर . . . . देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई से उत्तर-पश्चिम की तरफ कोई 700 किलोमीटर दूर . . . . 11 घंटे का सफर कर चुका हूं. . . गाड़ी 20 मिनट लेट है . . . . चिखलदरा महज 4-5 किलोमीटर दूर है . . . 13 घंटे की यात्रा कर चुका हूं . . . पहले मुंबई से 11 घंटे मुंबई से बडनेरा क रेल यात्रा की . . .. उसके बाद सड़क पर जीप से सवा दो घंटे में कोई 90 किलोमीटर पहाड़ियां पार कर रहा हूं . . . डेढ़ घंटे में कोई 70 किलोमीटर की यात्रा करके हम परतवाड़ा नामक एक छोटे कस्बे में पहुंचते है। . . . अब यहां से बस 40 किलोमीटर दूर है चिखलदरा।‘‘
इस तरह से पहली दुनिया में इतने किलोमीटर, उतने किलोमीटर का विवरण बहुत है। जिसे पढ़कर पाठक इरीटेड हो सकता है। कोई हो ना हो, मुझे बहुत इरीटेशन हुआ। एक बार तो लगा कि लेखक रिपोर्ताज लिख रहा है या ट्यूरिस्ट स्पॉट को फेमस करने लिए यात्रा वृतांत ! इसमें ट्यूरिस्ट स्पॉट तो नहीं था न !
खैर, अगर पाठक इस इरीटेशन को नंजरअंदाज कर पढ़ते हुए आगे बढ़े तो लेखक का लेखन वाकई पाठक को पहली दुनिया से रूबरू करा देगा।
दूसरी दुनिया (महाराष्ट्र): इसमें कसा हुआ और उम्दा लेखन है।
‘‘पिंजरेनुमा कोठरियों में जिंदगी’’ – इस रिपोर्ताज में शिरीष खरे ने मुम्बई के कमाठीपुरा की देह मंडी के बारे में बताया है। पढ़कर अहसास होगा कि कमाठीपुरा देहमंड़ी नरक है, जिसमें वेश्याएं तिल-तिल कर जीने को मजबूर है। लेखक खुद कमाठीपुरा की देहमंड़ी में गए, वेश्याओं के साथ समय गुजारा, उनकी जिदंगी को करीब से जाना। यह रिपोर्ताज बताता है कि देहमंड़ी में लोग सेक्स के अलावा क्या करने जाते है ? यह जानकर आपकी रूह कांप उठगी कि देहमंड़ी में लड़कियां कैसे लाई जाती है। कुछ खुद आती है लेकिन आखिर क्यों ? जिन वेश्याओं के बच्चे हैं, वे कैसे उनका पालन करती है और उन्हें इस मंड़ी से दूर रखने के लिए क्या-क्या जतन करती है।
तीसरी दुनिया (कनाडी बुडरूक-महाराष्ट्र): तिरमली जाति की बदलाव और संघर्ष की कहानी
‘‘अपने देश के परदेशी’’ – इस रिपोर्ताज में आपको फिर से एक जगह से दूसरी जगह की दूरियों के ब्यौरे पढ़ने को मिलेंगे। लेखक ने मराठवाड़ा के अंदरूनी गांव कनाडी बुडरूक के तिरमली मोहल्ले की 2010 की तस्वीर दिखाई है। तिरमली जाति के लोग एक जगह से दूसरे जगह जाते थे, बैलों व पशुओं का व्यापार करते थे, गाना-बजाना करते थे। महिलाएं चुड़ियां और जड़ी बूटियां बेचती थी।
राजस्थान में बंजारा, कालबेलिया, नट व मोगियां जैसी घुमन्तू जातियों का जो हश्र हुआ है। उससे कई गुना अधिक बुरा हाल तिरमली जाति के लोगों का हुआ। उनके पास 2010 तक पहचान के कोई दस्तावेज नहीं थे। शिक्षा को अपने विकास में जरूरी मानकर उनके द्वारा नई पीढ़ी को शिक्षा से जोड़ने के उनके प्रयासों को बारीकी से बताया गया है। तिरमली जाति के लोगों ने संघर्ष कर सामाजिक बदलाव की मिशाल पेश की। बदलाव यूं तो नहीं हुआ होगा, बदलाव के लिए चुकाई गई कीमत को लेखक ने हमारे सामने रखा है।
चौथी दुनिया (आष्टी, महाराष्ट्र) – मदारी परिवारों ही दशा और पहचान पाने का संघर्ष
‘‘कोई सितारा नहीं चमकता’’ – इस रिपोर्ताज से आप यह जान पायंेगे कि महाराष्ट्र के बीड़ जिले के आष्टी कस्बे में 52 घरों की सैयद मदारी बस्ती है। मदारी वो जिन्हें कुछ सालों पहले तक हम गांवों, कस्बों व शहरों के चौराहों पर खेल दिखाते हुए या करतब दिखाते हुए देखा करते थे। घुमन्तू वर्ग के इन लोगों के 52 परिवारों की बस्ती यहां बस गई। इनकी अलग ही दुनिया है। अब इनके खेल के कद्रदानों की कमी हो गई है, नतीजतन इनकी आय ठप्प हो गई है। ये लोग कभी बॉलीवुड की फिल्मों में स्टंट किया करते थे लेकिन इनको पहचान कभी नहीं मिली। आज भी वे जाति प्रमाण पत्र के लिए संघर्ष कर रहे है।
हम याद करें तो पायेंगे कि पहले मदारियों के डेरे गांवों में आते थे, गांव के आस-पास खाली जमीनों पर तंबू गाड़कर कुछ दिन वहां रहते, खेल बताते और बदले में मिली भेंट लेकर आगे बढ़ जाते थे। ऐसा अब क्यों नहीं हो रहा ? उन्होंने आना क्यों बंद कर दिया ? अब वे खेल क्यों नहीं दिखाते है ? इन सब सवालों के जवाब आपको इस रिपोर्ताज में मिलेंगे।
पांचवी दुनिया (मस्सा, महाराष्ट्र) – मराठवाड़ा के गन्ना मजदूरों की दर्दनाक व्यथा
‘‘गन्नों के खेतों में चीनी कड़वी’’ – पीड़ा तो पीड़ा होती है। उसके दर्द को झेलने वाला ही जानता है। इस रिपोर्ताज में लेखक ने मराठवाड़ा के मस्सा गांव के गन्ना मजदूरों के हालात से रूबरू कराया है। उस्मानाबाद, सोलापुर, लातूर, अहमदनगर और बीड़ जिले सहित पड़ौसी राज्य कर्नाटक के सीमावर्ती जिलों में भी गन्ने का उत्पादन खूब होता है। चीनी मीलों की भी भरमार है। रोजगार के लिए गांवों से पति पत्नी बच्चों सहित गन्ना कटाई काम में पलायन करते है। पापी पेट के लिए खेतों गन्ना काटने जाने वाले इन मजदूरों के साथ बिचौलियों से लेकर ठेकेदारों द्वारा कई जुल्म किए जाते है।
रिपोर्ताज के इस भाग में लेखनी में काफी कसावट है। आप पढ़ते जायेंगे, पढ़ते ही जायेंगे। शब्दों के संयोजन की झलक इन दो सेंटेस में देखिए –
‘‘ये स्वतंत्र भारत के गांव है। असल में रोटी की गोलाई देश की सीमाओं से परे है और मजूरी यहां की सबसे बड़ी देशभक्ति है।’’
‘‘कहने को ये गन्ने को जड़ से उखाड़ रहे हैं, किंतु सच्चाई यह है कि गन्ने ने इन्हें जड़ से उखाड़ दिया है।’’
छठी दुनिया (महादेव बस्ती, महाराष्ट्र) – पारधी जनजाति के लोगों की कसक
‘‘सूरज को तोड़ने जाना है’’ – बरसों तक जैसा पूर्वाग्रह पुलिस, प्रशासन और समाज ने राजस्थान में कंजर व सांसी समाज के लोगों के प्रति रखा, वैसा ही पूर्वाग्रह मराठवाड़ा के उस्मानाबाद जिले की महादेव बस्ती की पारधी जनजाति के लोगों के प्रति वहां की पुलिस और वहां का समाज रखता आया है। लेखक ने बताया कि आजादी के सालों बाद सरकार ने इस बस्ती को एक मात्र स्कूल की सुविधा दी। लोकहित संस्था के संजय तांबारे और उनके साथियों ने इस बस्ती के लिए खूब काम किया और तब भी कर रहे थे जब 2010 में लेखक इस गांव में पहुंचे। स्कूल को लोग समाजशाला कहते है। बस्ती के बच्चे पढ़ रहे है। सामाजिक बदलाव की अच्छी कहानी बुनी है लेखक ने। गांव की महिलाएं बताती है कि अभी भी आस-पास कहीं चोरी हुई नहीं कि पुलिस बस्ती में आ धमकती है।
सातवीं दुनिया (संगम टेकरी, गुजरात) – सूरत में जीरो स्लम अभियान के तहत नस्तेनाबूत होती झोपड़ियां
‘‘मीराबेन को नींद नहीं आती’’ – सटीक शीर्षक दिया लेखक ने। हमारे पास सिर छिपाने के लिए महज एक झोंपड़ी है, पेट पालने के लिए पर्याप्त आय नहीं है और हमें ये अंदेशा होने लगे कि म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के लोग झोंपड़ी को तोड़ने आने वाले है तो तो भला नींद कैसे आयेगी ? लेखक ने न्यू सूरत के निर्माण में झोपड़पट्टियों को तोड़ने की दुःखांत घटनाओं का वर्णन किया है।
महाराष्ट्र के बाद लेखक गुजरात में प्रवेश हुए है। सूरत में झोपडपट्टियों को हटाने व वहां के लोगों को सुदूर भूभाग में विस्थापित कर उनकी अलग दुनिया बनाने का मार्मिक चित्रण किया है। इस समीक्षा को पढ़कर आप उस मर्म को नहीं जान सकते। सूरत को आपने देखा होगा। ताप्ती नदी को देखा होगा। डायमण्ड मार्केट देखे होंगे। इतना नहीं तो कम से कम सूरत का नाम तो आपने सुना ही होगा। लेखक ने इस भाग में सूरत के अंदर की दूसरी सूरत दिखाई है। कसम से कह रहा हूं जो सूरत लेखक ने दिखाई है वो सूरत आप सूरत जाकर भी नहीं देख पायेंगे।
आठवीं दुनिया (बरमान, मध्यप्रदेश) – नर्बदा से लोगों की और लोगों से नर्बदा की पीड़ा
‘‘वे तुम्हारी नदी को मैदान बना जायेंगे’’ – इसका पहला चैप्टर मुझे बोरिंग लगा। पढ़ते-पढ़ते नींद आ गई।
दूसरे दिन मैं उठा। किताब के एक-दो पन्ने पलटे। पढ़ने का मन नहीं हुआ। किताब को टेबल पर छोड़ नित्यकर्म से निवृत होने चला गया। उसके बाद किताब पढ़ने लगा। . . . आप सोच रहे होंगे कि समीक्षा के बीच मैं ये क्या लिखने लगा। . . . मैंने आपको पहले ही बताया था कि लेखक ने जिस पैटर्न से लिखा है मैं भी उसी पैटर्न से लिख रहा हूं। पेज नंबर 125 से शुरू होकर पेज 127 पर समाप्त हो रहा चैप्टर लेखक ने क्यों लिखा ? यह सोचते सोचते मुझे फिर से नींद आ गई।
इस भाग में लेखक ने नर्मदा नदी के उद्गम से लेकर उसके विस्तार तथा दिनों दिन नर्बदा की सूरत बिगड़ते जाने के कारणों के बारे में बताया है। इसे पढ़कर आप नर्बदा के बारे में ढ़ेर सारी जानकारी पा सकते है।
इसी के अगले चैप्टर में आप जानेंगे नर्बदा पर बनाए जा रहे बांध व परियोजनाओं चलते हो रहे बहु विस्थापन के बारे में। एक बार का विस्थापन ही जिंदगी को मुश्किलों में डाल देता है फिर बहु विस्थापन से तो न केवल घर बल्कि जिंदगी ही उजड़ जाती है। लेखक के भावों को मैंने यूं आत्मसात किया।
अगले चैप्टर में नर्बदा नदी पर प्रस्तावित थर्मल पॉवर प्लांट और विकास के वादों की हकीकत बयां की गई। विडम्बना बताई है कि जहां बिजली बनाई जा रही है, वहां के आस-पास गांवों में लोग अंधेरों में है। जबकि बिजली सैकड़ों किलोमीटर दूर तक पहुंचाई जा रही है। यहां ‘‘दीये तले अंधेरा’’ वाली कहावत चरितार्थ होती दिखी।
इसके आगे के चैप्टर में बरघी बांध के विस्थापितों सहित नर्बदा के एक छोर से दूसरे छोर तक आस-पास में बसे गांवों के लोगों की दयनीय दशा बताई गई है। जिसे पढ़कर आपके बाजू फड़कने लगेंगे और कुछ देर बाद शांत हो जायेंगे।
नव्वीं दुनिया (बायतु, राजस्थान) – महज मीरा, राजौं और भंवरी से जुड़े 3 किस्से !
‘‘सुबह होने में देर है’’ – इस रिपोर्ताज में लेखक से सबसे कम मेहनत की। वो बारह दुनिया पूरी करने के चक्कर में राजस्थान आए लगते है। खैर, आए तो थोड़ा-सा काम कर गए। 2012 में लेखक बायतु पहुंचते है। हर दुनिया की तरह इस दुनिया के मुख्य स्थानों की बायतु से दूरी का ब्यौरा भी लेखक ने दिया। सामाजिक संस्था के कार्यकर्ता के बिना इस दुनिया में भी लेखक नहीं घूम सकते थे, सो कार्यकर्ता के सहयोग से एक गांव में पहुंचे और एक रेप पीड़िता की दर्द भरी कहानी सुनी और इस भाग में लिखी। लेखक ने इस भाग में जाति व्यवस्था के अनुभव लिखे है। दूसरे चैप्टर में मीरा की कहानी सुनकर लेखक ने जातीय अत्याचार को उकेरने का प्रयास किया है। तीसरे चैप्टर में लेखक ने बदलाव की बड़ी कहानियों को चंद वाक्यों में समाप्त कर दिया। हालांकि कम शब्दों व कम वाक्यों में उन्होंने सारगर्भित बातें लिख दी लेकिन घटनाओं के विस्तृत ब्यौरे न देने से दूसरी दुनिया के लोग इस दुनिया के दर्द को कैसे समझेंगे और महसूस करेंगे ?
इस नव्वी दुनिया के लोग लेखक की बताई नव्वी दुनिया को शायद ही दुनिया मानेंगे। नव्वी दुनिया में तो ऐसे लोग रहते है जो वास्तविक दुनिया के हरेक देश में कुंचाले भरते दिखते है। वैसे राजस्थान में 33 जिले है और हर जिले में एक दुनिया है।
शिरीष खरे ने इस किताब के आवरण में चार चित्रों का एक कोलाज दिखाया है। उनमें से 2 चित्र राजस्थान के प्रतीत है। महाराष्ट्र, गुजरात और छतीसगढ़ में घूंघट नहीं निकालती है। इसलिए मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि कोलाज में लिया गया दूसरा फोटो राजस्थान की महिलाओं का है। कोलाज का तीसरा फोटो जिसमें रेबारी जाति का व्यक्ति गायों व बैलों को ले जाते हुए दिखाया गया है, ये फोटो राजस्थान का है। यानि आवरण पर राजस्थान को आधा स्थान दिया लेकिन रिपोर्ताज में नहीं।
लेखक ने राजस्थान के पाठकों के साथ चिटिंग कर दी।
दसवीं दुनिया (दरभा, छतीसगढ़) –
‘‘दंडकारण्य यूं ही लाल नहीं हैं’’ – लेखक ने प्रस्तावना में बताया था कि ‘‘यह बारह रिपोर्ताज 2008 से 2017 तक पत्रकारिता के दौरान देश के दुर्गम भूखंड़ों में होने वाले दमन-चक्र का लेखा जोखा और दस्तावेजीकरण का नतीजा है।’’ लेकिन नौ दुनिया पढ़ने तक पाठक को पता नहीं चल पाता है कि लेखक पत्रकार है। दसवीं दुनिया पढ़़ने के दौरान पता चलता है कि लेखक पत्रकार है और राजस्थान पत्रिका के साथ काम कर रहे है।
यह रिपोर्ताज 4 चैप्टर में है। पहले चैप्टर में राजस्थान पत्रिका के संपादकीय सहयोगी शिरीष खरे पुलिस मुठभेड़ में मारी गई मीना खलको नाम की युवती के मामले में तथ्य जुटाने गए। चैप्टर में आप ढूंढ़ते रह गए जायेंगे कि आखिरी मीना खलको मुठभेड़ मामले के तथ्य क्या थे। आप यह भी जान पायेंगे कि दो किलो अन्न की आस में नब्बे किलोमीटर लंबी पैदल यात्रा करते है बस्तर के लोग। ग्रामीण पाठक जो जानते है महानरेगा में काम न मिलने, काम का समय पर भुगतान न मिलने, बार-बार चक्कर काटने के बावजूद राशन कार्ड नहीं बनाने के मामलो के बारे में। इन मामलों से कई गुना ज्यादा गंभीर है बस्तर के लोगों के मामले। हाट बाजारों में लाशें बिछ जाने से लेकर कई गांवों की वेदना आपको इन चार चैप्टर में पढ़ने को मिलेगी। अंजान आदमी को नक्सली पुलिस समझकर कर और पुलिस नक्सली समझकर कब टपका दे, कहा नहीं जा सकता। लेखन ने बताया कि टाटा स्टील प्लांट का सपना दिखाकर लोगों की जमीनें ले ली गई और किसानों को बर्बाद कर दिया। लेखक ने इस बात की पुष्टि की है बस्तर में जीवन का रत्ती भर भी मोल नहीं है। जगदलपुर के समीप सीमेंट की फैक्ट्री के लिए की गई पत्थरों की खुदाई के कारण जलाशय रीत गए है। पशु मर गए है। खेत खराब होने से लोग बेरोजगार हो गए है। बस्तर में लोकतंत्र का हद से ज्याद गला घोंट दिया गया है। कोई सुनने वाला नहीं है। फर्जी आत्म समर्पण की घटनाओं का उल्लेख भी लेखक ने किया। पेज नंबर 182 से आप आंखें फाड़कर पढ़ने लगेंगे। आंखों के आगे भयावह तस्वीरें और मौतों के आंकड़ें घूमने लगेंगे। हीरे की खदानों से लेकर जेमनी बाई की जमीन की मांग तक आप सरपट पढ़ते जायेंगे और पेज 186 पर चैप्टर समाप्त होने पर सांस लेंगे।
ग्यारहवीं दुनिया (मदकूद्वीप, छतीसगढ़) –
‘‘खंडहरों में एक गाइड की तलाश’’ – इस भाग में लेखक ने रायपुर-बिलासपुर हाइवे पर कोई 80 किलोमीटर दूर बेतलपुर के समीप बह रही शिवनाथ नदी से गिरे मदकूद्वीप के बारे में बताया है। रिस्क लेकर लेखक अपने 4 दोस्तों के साथ एक डोंगी में बैठक नदी पार कर द्वीप पर पहुंचे। जहां उन्नीस मंदिरों का समूह है। लेखक के अनुसार यहां सातवीं से दसवीं शताब्दी की सभ्यता के अवशेष है। इस विरासत को बचाने के लिए आवश्यक प्रयास नहीं किए गए है। लेखक ने सावचेत किया है कि रेतमाफिया शिवनाथ नदी के किनारों को खोखला कर रहे है और आने वाले समय में वे इस द्वीप के लिए खतरा बन जायेंगे।
बाहरवीं दुनिया (अछोटी, छतीसगढ़) –
‘‘धान के कटोरे में राहत का धोखा’’ – इस रिपोर्ताज में लेखक ने बताया कि सूखे के कारण अछोटी के किसानों की फसलें बर्बाद हो गई। सरकारी सिस्टम ने किसानों की नुकसानी का सही आंकलन नहीं किया। जमीन पर आकर रिपोर्ट बनाने की बजाए दफ्तरों में बैठे-बैठे ही झूठी रिपोर्ट बना दी। नतीजा यह हुआ कि प्रभावित किसानों को मुआवजा नहीं मिल रहा। सुखे से और अतिवृष्टि से नुकसान को हम ग्रामीण पाठक भी अच्छे से जानते है और यह भी जानते है कि पटवारी और राजस्व विभाग के लोग किस तरह दफ्तरों में बैठे रहकर झूठी रिपोर्ट बनाकर भेजते है। किसानों को मुआवजे के लिए दर दर की ठोकरें खाते हुए हम सभी देखते रहते है लेकिन छतीसगढ़ के इस क्षेत्र के किसानों की पीड़ा अतिगंभीर किस्म की है। पढ़ेंगे तो जान पायेंगे।
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समीक्षक : लखन सालवी”
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