सूफ़ी की क़लम से..मुसलमानों के बगल में मदरसे ,फिर भी तालीम को तरस रहे

Sufi Ki Kalam Se

सूफ़ी की क़लम से …✍️

मुसलमानों के बगल में मदरसे ,फिर भी तालीम को तरस रहे

इकरा बिस्मे रब्बेकललज्जी खलक.. को क़ुरान की पहली आयत मानने वाले मुसलमानों की शिक्षा कि बात कि जाये तो काफ़ी आश्चर्यजनक आँकड़े सामने आते है ।अक्सर मुस्लिम नेता और बड़े बड़े धर्मगुरु अपने भाषणों कि शुरुआत भी इसी आयत से करते हुए शिक्षा की अहमियत पर लंबी लंबी तक़रीरे करते है । मुस्लिम समाज से संबंधित जीतने भी प्रोग्राम होते होंगे उनमे से ज़्यादातर में तालीम की ही बात कि जाती है । इस आयत के अलावा एक और हदीस का हवाला दिया जाता है जिसमें आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफा (स.अ.) ने कहा था कि “ इल्म हासिल करने के लिए चीन भी जाना पड़े तो जाओ।”

लेकिन अफ़सोस सद अफ़सोस के साथ एक बार फिर से कहना पड़ रहा है कि ये सब बातें जलसों या मंचों  से बाहर आकर आज भी अंजाम तक नहीं पहुँच पाई है। आख़िर क्या वजह है की किसी चीज पर कहने सुनने के  बाद भी आज तक हालातों में इतना सुधार नहीं हुआ है जितनी कोशिश की जा रही है । आज का मुसलमान शिक्षा के अभाव में हर क्षेत्र में लगातार पिछड़ता जा रहा है और इससे भी ज़्यादा  आश्चर्य कि बात ये है कि इन्हें इस चीज़ का अहसास तो है लेकिन उसके प्रति जरा भी गंभीर नहीं है ।

तो आइये आज इसी मुद्दे पर विस्तार से बात करते है-

प्राचीन मदरसा तालीम –

वैसे तो हमारे देश सहित सभी जगहों पर प्राचीन काल से ही शिक्षा प्राप्त करने के विभिन्न इंतज़ामात थे। हिंदुस्तान में शिक्षा के परिप्रेक्ष्य  की बात करें तो यहाँ भी प्राचीन काल से ही हमारा देश शिक्षा का केंद्रबिंदु रहा है । देश में औपचारिक शिक्षा की बात करें तो इसके शुरुआती रुझान मदरसे के रूप में   ही मिलेंगे। सन् 1786 में कलकत्ता में पहले मदरसे (मदरसा ए हुनरी ) की स्थापना के साथ ही औपचारिक  शिक्षा की शुरुआत मानी जाती है। इस मदरसे के साथ ही देश में  शिक्षा का व्यापक प्रचार प्रसार हुआ और  धीरे धीरे संपूर्ण देश में शिक्षा के मंदिरों की बाढ़ आ गई । देश के लोगो का टैलेंट बाहर आने लगा और देखते ही देखते भारत ने शिक्षा के क्षेत्र में काफ़ी उन्नति कर ली और इस उन्नति में मुसलमानों के शैक्षिक स्तर का  प्रतिशत भी ठीक ठाक रहा । भारत  का मुसलमान हमेशा से ही मदरसों से जुड़ा रहा है जहां उन्हें धार्मिक शिक्षा के साथ साथ दुनिया कि तालीम भी मिलती रही है । और इन्ही मदरसों से तालीम हासिल करके कई मुस्लिम युवकों ने इतिहास रचा है जिसमें मोलाना अबुल कलाम, ज़ाकिर हुसैन(राष्ट्रपति) ,डॉ एपीजे कलाम जैसे कई नाम शामिल है । 

मदरसों का मध्यकाल –

एक तरफ़ जहां मदरसा तालीम इतनी कामयाब थी की यहाँ मुस्लिम ही नहीं लाखों की संख्या में ग़ैर मुस्लिमों ने भी मदरसों में  अध्ययन कर एक अलग मक़ाम बनाया ।महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद  जैसे अनगिनत  ऐतिहासिक चेहरे मदरसा तालीम की ही देन है । आज़ादी के बाद देश में एक साथ कई उतार चढ़ाव आये जिनका असर ,शिक्षा के क्षेत्र में भी पड़ा। धीरे धीरे देश में कई तरह के अलग अलग स्कूल वजूद में आये जिनकी ज़रूरत भी थी  लेकिन मदरसों ने समय के साथ बदलाव नहीं किया तो मदरसे जहां थे वही रह गये और नयी नयी शैक्षणिक संस्थाएँ अपना बेहतर से बेहतर देने की कोशिश करने लगी ।

आधुनिक मदरसा तालीम (वर्तमान)-

मध्यकाल में पिछड़ने की शुरुआत करने वाले मदरसे आधुनिक काल में भी पिछड़ते ही चले गये । ज़्यादातर मदरसों में सिर्फ़ मुस्लिम समाज के ही बच्चे पढ़ने लगे। समय के साथ साथ  मदरसों की संख्या में तो काफ़ी वृद्धि हुई लेकिन उनमें दी जाने वाली तालीम से मुस्लिम बच्चों का उस अनुपात में कोई फ़ायदा नहीं हुआ जितना होना चाहिये था । 

इसके कई कारण है, जानते है वो क्या है –

1- धार्मिक एवं अनिवार्य शिक्षा का पृथक्करण-

आधुनिक मदरसा शिक्षा में बच्चों को धार्मिक शिक्षा के लिए अलग से किसी धार्मिक गुरु के पास जाना पड़ता है और अनिवार्य शिक्षा के लिए मदरसे । ऐसे में दो अलग अलग जगह जाने से मुस्लिम बच्चों के सीखने पर विपरीत प्रभाव पड़ा ।कई मदरसों में दोनों तरह की शिक्षा एक ही जगह दी जाती है लेकिन वहाँ धार्मिक गुरुओं और शिक्षकों में उचित सामंजस्य ना बैठ पाने के कारण भी नुक़सान बच्चों को ही उठाना पड़ रहा है । 

2- सरकारी मदरसे- वर्तमान समय में देश में चल रहे ज़्यादातर मदरसे सरकार के अधीन है इसके चलते होना तो ये चाहिए था की मदरसा तालीम मुख्य धारा से जुड़ जानी चाहिए थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मदरसों पर सरकार की कोई प्रभावी मॉनिटरिंग नहीं हो पाने और मदरसा कमेटियों के पास प्रयाप्त संसाधनों/अनुभवों के अभाव के कारण मदरसा तालीम का ढर्रा बिगड़ा हुआ है ।

3- धार्मिक गुरु बनाम मदरसा शिक्षक-

मदरसों में सरकार द्वारा नियुक्त मदरसा शिक्षक और वहाँ पहले से कार्यरत धार्मिक गुरुओं के बीच तालमेल ना होने की वजह भी  मदरसा तालीम की  गिरावट का एक कारण कहा जा सकता है । धार्मिक शिक्षकों का वेतन मदरसा शिक्षकों से कम होने के कारण उनमें  परस्पर एकता का अभाव होता है । धार्मिक शिक्षक सोचते है कि मदरसा शिक्षक मदरसों के ज़्यादा जिम्मेदार है तो ये बच्चों पर ज़्यादा ध्यान देंगे और उधर मदरसा शिक्षक धार्मिक शिक्षा की जिम्मेदारी पूरी तरह से धार्मिक शिक्षक पर छोड़कर बरीजिम्मा हो जाते है, नतीजतन बच्चों को इस चक्की में पीसना पड़ता है । कई मदरसा शिक्षक तो पढ़ाने के नाम पर  केवल ओपचारिकता कर रहे है जिसका ख़ामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ रहा है ।

4- अयोग्य व्यक्तियों का नेतृत्व-

सरकार के बाद मदरसों पर स्थानीय कमेटियों का नियंत्रण रहता है जो पूरी तरह से ग़ैर ज़िम्मेदाराना तरीक़े से होता है । ज़्यादातर जगहों पर स्थानीय कमेटियों में ऐसे ऐसे लोगो के हाथों  में बागडोर  है जिनका शिक्षा के क्षेत्र से दूर दूर तक कोई जुड़ाव नहीं है । यही कारण है की वर्तमान में मदरसों पर  करोड़ों रुपये का बजट खर्च  होने के बाद भी स्थितियाँ जस की तस है ।

वर्तमान समय में मदरसों के नाम पर काग़ज़ों में तो करोड़ों अरबों रुपयों का काम हो रहा है लेकिन सच्चाई इससे काफ़ी अलग है । केवल कुछ मदरसों को छोड़कर लगभग सभी मदरसों में केवल शिक्षक ही बचे है उनमें  दूर दूर तक बच्चों के नामो निशान नहीं है और कुछ नामांकन है भी तो केवल दिखावे का । अब ऐसी परिस्थितियों के लिए कौन ज़िम्मेदार है ये सोचने का काम आप पर निर्भर है । सरकार मदरसों को फर्नीचर दे रही है , निःशुल्क किताबें, भोजन और दूध दे रही है , ड्रेस के साथ साथ डिजिटल क्लासरूम भी दे रही है लेकिन कुछ मदरसों को छोड़ दे तो बाक़ी में केवल ख़ानापूर्ति ही हो रही है । 

उपसंहार

पुराने समय से लेकर आजतक मदरसों की संख्या में निरंतर वृद्धि हुई है और साथ ही संशाधनों की कमी भी दूर हुई है । आज हर बच्चे की मदरसे तक आसान पहुँच है ।शायद ही कोई ऐसी मुस्लिम बस्ती हो जहां मदरसा ना हो लेकीन फिर भी मुस्लिम बच्चे शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ते क्यों जा रहे है ?अपने बग़ल में मदरसे होने के बाद भी मुस्लिम बच्चों में ड्रापआउट क्यों बढ़ता हा रहा है ? यह रिसर्च का विषय होना चाहिए । इस पर रिसर्च करके काम  करने कि ज़रूरत है । समस्या इतनी बड़ी भी नहीं है जिसके समाधान में बहुत कुछ करना पड़े । केवल मॉनिटरिंग की कमी है, जागरूकता की कमी है , प्रचार प्रसार की कमी है और एक शब्द में कहा जाये तो केवल मैनेजमेंट कि कमी है  ।अगर ज़िम्मेदार लोग ऐक्टिव मोड में आकर काम करें तो ये ज़्यादा बड़ी चुनोती नहीं है । जहां मदरसों पर अच्छा काम हो रहा है वहाँ के मदरसों से सीख लेकर उस मॉडल को फॉलो करने की ज़रूरत है। मदरसा कमेटियों की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ और सिर्फ़ शिक्षित और समर्पित लोगो के हाथ देनी होगी, और ये काम समय रहते नहीं किया गया तो बहुत देर हो जाएगी । देश के सभी समाज, आधुनिक दौर में कदम से कदम मिलकर उन्नति कर रहे है और करना भी चाहिए तो फिर मुस्लिम बच्चों को इस अधिकार से क्यों वंचित रहना पड़े इस पर गौर करने की आवश्यकता है ।

नासिर शाह (सूफ़ी)

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