यूनानी चिकित्सा पद्धति – एक संक्षिप्त परिचय
यूनानी चिकित्सा पद्धति विश्व की प्राचीनतम पद्धतियों में से एक है l इस पद्धति क उद्गम यूनान से होने के कारणवश इसे यूनानी पद्धति दे नाम से जाना जता है l यूनान के महान दार्शनिक सुकरात (हिप्पोक्रेटस – 460-377 ई. पू.) को चिकित्सा विज्ञान का पिता (फादर ऑफ मेडिसिन) कहा जाता है l सुकरात ने चिकित्सा को अंधविश्वास एवं जादू-टोने की सीमा से निकाल कर उसे विज्ञान का रूप दिया, यूनानी चिकित्सा पद्धति की सैधांतिक संरचना सुकरात की शिक्षाओं पर ही आधारित है l सुकरात ने अखलात का सिधांत (ह्यूमोरल थ्योरी) दिया जो यूनानी चिकित्सा पद्धति की सैधांतिक मौलिक सिद्धांतो में मुख्य स्थान रखता है l
यूनान के पश्चात इस पद्धति के विकास में रोम के महान दार्शनिक जालीनूस (गैलन) 129-216 ई. ने अत्यधिक योगदान दिया l तत्पश्चात यूनानी चिकित्सा पद्धति अरब देशों में विकसित हुई l इस पद्धति के विकास में जाबिर इब्ने ह्य्यान (732-813) हुनैन इब्ने इस्हाक (809-873 ई.) ज़करिया राज़ी (850-925 ई.) अबुल क़ासिम ज़ोहरावी (936-1013 ई.) शेख़ अबू अली इब्ने सीना (980-1037 ई.) ने अमूल्य योगदान दिए l राज़ी की किताब “अल हावी फित तिब” और इब्ने सीना की पुस्तक “अल क़ानून फित तिब” को यूनानी पद्धति का इन्साइक्लोपीडिया माना जाता है l
अरब देशों से यूनानी पद्धति का आगमन भारत में, मुगलकाल में हुआ और आम जनता में तत्काल इस चिकित्सा पद्धति को समर्थन प्राप्त हुआ इस प्रकार समस्त भारतवर्ष में इसका प्रसार हो गया l मुग़लकाल में यूनानी पद्धति के विकास में हकीम अली गिलानी (1558-1606 ई.) हकीम अलवी खान (1669-1749 ई.) हकीम अकबर अरजानी (1722 ई.) एवं हकीम शरीफ खान (1759-1806 ई.) का महत्वपूर्ण योगदान रहा l खमीरा जात का आविष्कार इसी शासनकाल में हुआ l
ब्रिटिशकाल के दौरान यूनानी चिकित्सा पद्धति को काफी नुकसान पहुंचा और उसका विकास राजकीय संरक्षण के अभाव में प्रभावित हुआ परन्तु इस पद्धति को सर्व साधारण का विश्वास प्राप्त होने के कारण यह पद्धति प्रचलित रही, भारत के प्रख्यात विद्वान एवं यूनानी चिकत्सक हकीम अजमल खान (1864-1927 ई.) ने इस पद्धति के संरक्षण एवं उन्नति में महत्वपूर्ण योगदान दिया जिसके लिए उन्होंने 1921 ई. में आयुर्वेदिक एवं यूनानी तिब्बिया कॉलेज, करोल बाग़, नई दिल्ली की स्थापना की जिसमें आयुर्वेदिक एवं यूनानी चिकत्सा पद्धतियों में शिक्षा एवं प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है l सन 1962 ई. में हकीम अब्दुल हमीद (1908-1999 ई.) ने इंस्टिट्यूट ऑफ़ हिस्ट्री ऑफ़ मेडिसिन एंड मेडिकल रिसर्च की स्थापना की जिसका उद्देश्य यूनानी लिटरेचर एवं औषधियों पर शोध करना तथा इन्हें आधुनिक विज्ञान से जोड़ना था l
सन 1969 ई. में भारत सरकार ने यूनानी को भारतीय चिकित्सा पद्धति में शामिल करते हुए सेन्ट्रल काउंसिल फ़ॉर रिसर्च इन इंडियन मेडिसिन एंड होम्योपैथी का गठन किया l
सन 1976 ई. में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) से मान्यता प्राप्त होने के बाद यूनानी पद्धति को अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिली l
सन 1995 ई. में भारतीय चिकित्सा पद्धति (ISM) एवं होम्योपैथी को पूर्ण विभाग का दर्जा मिला तत्पश्चात 2003 में भारत सरकार ने इसे आयुष विभाग का नाम दिया l इसके विकास एवं प्रचार व प्रभार के लिए प्रयत्न जारी है।
मौलिक सिद्धांत
यूनानी चिकित्सा पद्धति के मूल सिद्धांतों एवं दर्शन शास्त्र के अनुसार रोग एक प्राकृतिक प्रक्रिया है और लक्षण शरीर की प्रतिक्रिया है और एक चिकित्सक का मुख्या कर्त्तव्य प्राकृतिक शक्तियों को सशक्त बनाना है l
मानव शरीर की संरचना सात भौतिक सिद्धांतों पर आधारित है l अरकान, मिज़ाज, अखलात, आज़ा, अरवाह, कुवा एवं अफ़आल l इनमें से शरीर में रोग मुख्यतः मिज़ाज एवं अखलात में दोष पैदा होने के कारण होता है l यूनानी चिकित्सा पद्धति के अनुसार शरीर में चार प्रकार के अखलात (तरल द्रव) होते हैं l जिन्हें दम होता है l यूनानी चिकित्सा पद्धति के अनुसार शरीर में चार प्रकार के अखलात (तरल द्रव) होते हैं l जिन्हें दम (खून), बलगम, सफरा, सौदा के नाम से जाना जाता है l ये चारों अखलात शरीर में सामान्य परिस्थितियों में एक उचित अनुपात में पाए जाते हैं l जब तक ये अपने उचित अनुपात में रहते हैं, तब तक शरीर स्वस्थ रहता है और यदि इसमें से किसी भी खिल्त के अनुपात में बदलाव आता है तो वह रोग का कारण बनता है l मनुष्य की प्रकृति इन अखलात के अनुपात पर ही निर्भर करती है, जिस व्यक्ति में जो खिल्त अधिक मात्रा में होती है उसका मिज़ाज भी वैसा ही होता है l इस प्रकार मनुष्य का मिज़ाज चार प्रकार का होता है, दमवी, बलगमी, सफरावी एवं सौदावी
शरीर में इन खिल्तों के संतुलन को बनाये रखने के लिए एक स्व: प्रतिरक्षण या सामंजस्य शक्ति होती है जिसे “कुव्वत-ए-मुदब्बिरा बदन” कहते हैं l जब यह शक्ति कमज़ोर हो जाती है तो अखलात का संतुलन बिगड़ जाता है और तब रोग उत्पन्न होता है l इन रोगों की पहचान उस व्यक्ति का मिज़ाज देखकर की जाति है l इसके अतिरिक्त नब्ज़ (नाड़ी) बौल (मूत्र) व बराज़ (मल) आदि का परीक्षण भी रोग की पहचान में सहायक है l
यूनानी चिकित्सा पद्धति में विभिन्न प्रकार के रोगों से बचने और उनकी रोकथाम के लिए एक सिद्धांत का प्रचलन है l इसे असबाब-ए-सित्ता ज़रुरिया (छ: आवश्यक नियम) कहते हैं, जो इस प्रकार हैं l
हवा (वायु)
माकूलात व मशरूबात (खान-पान)
हरकत व सुकून बदनिया (शारीरिक सक्रियता एवं विश्राम)
हरकत व सुकून नफ्सानिया (मानसिक सक्रियता एवं विश्राम)
नौम व यकज़ा (सोना व जागना)
एहतबास व इस्तफराग (स्तम्भन एवं वहिस्राव/विसर्जन)
यूनानी चिकित्सा पद्धति में उपचार
यूनानी चिकित्सा पद्धति में उपचार की विभिन्न विधियाँ हैं जैसे
इलाज बिल तदबीर (रैजीमिनल थेरेपी)
इलाज बिल गिज़ा (आहार चिकित्सा)
इलाज बिल दवा (औषधीय चिकित्सा)
इलाज बिल यद (शल्य चिकित्सा)
रैजीमिनल चिकित्सा – इस में फस्द, हिजामत (सींगी लगाना), तारीक (पसीना लाना), इदरार बौल (पेशाब लाना), कै (उल्टी लाना), रियाज़त (व्यायाम), तालीक़ (जौंक लगाना) आदि शामिल हैं l
आहार चिकित्सा – इसमें रोगों का उपचार आहार की मात्रा एवं उसकी गुणवत्ता को ध्यान में रखकर किया जाता है l
औषधीय चिकित्सा – इसमें औषधियों का प्रयोग कर रोग का उपचार किया जाता है l ये औषधियाँ अधिकतर वनस्पति मूल की होती हैं, इसके अतिरिक्त प्राणी जगत एवं खनिज औषधियाँ भी चिकित्सा में शामिल होती हैं l
शल्य चिकित्सा – शल्य चिकित्सा का भी यूनानी चिकित्सा पद्धति में प्राचीन काल से प्रयोग हो रहा है l
– गेस्ट ब्लॉगर डॉक्टर शमीम खान कोटा
सीनियर यूनानी मेडिकल ऑफिसर -2
गवर्नमेंट यूनानी डिस्पेंसरी कोटा उत्तर राजस्थान
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