सूफ़ी की कलम से…
आश्रम के लड्डुओं और मिर्जापुर के कट्टो ने गर्म किया वेब सीरीज का बाजार
एक दौर हुआ करता था जब हिंदी फ़िल्मों में धार्मिक किरदारों को सम्मान के साथ प्रस्तुत किया जाता था। जमाना बदला तो दर्शकों की मांग भी बदली और अलग अलग फ़िल्मों में एक धर्म को अच्छा और दूसरे को बुरा कहने का दौर शुरू हुआ। सिनेमाघरों मे दर्शकों की जगह अलग अलग विचारधारा रखने वाले लोगों का आगमन शुरू हुआ। लोग फ़िल्में देखना पंसद करे ना करे लेकिन अपनी विचारधारा को बढावा देने के लिए थियेटर मे फ़िल्में थोपी जाने लगी। फिर अचानक कोरोना महामारी ने दुनिया भर में दस्तक दी। सारे थिएटर खाली हो गए। विभिन्न विचारधारा वाले लोग सोशल मीडिया पर ही अपनी राय रखने लगे। फिल्म निर्माताओं ने एक बार फिर से अवसरों को भुनाया और सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म पर ही फ़िल्में परोसी जाने लगी। फिल्म निर्माताओं के लिए यह काम और सरल रहा। जिस तरह मिर्जापुर के गुड्डू पंडित मजबूरी में अपराध किए थे लेकिन धीरे धीरे उस काम में मजा आने लगा था उसी तरह फिल्मकारों द्वारा मजबूरी में शुरू किया वेब सीरीज का काम भी उन्हें धीरे धीरे आनंद देने लगा। फिर क्या था फिल्मकारों ने ना सिर्फ फ़िल्मों की कहानी परिवर्तित की, बल्कि पूरी की पूरी फिल्म प्रस्तुत करने का तरीका ही बदल दिया। जो बंदिशें फिल्मकारों को बड़े पर्दे पर थी, यहां वह नहीं रही और फिल्मकारों ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर खुलकर अश्लीलता और हिंसा परोसना शुरू कर दिया।
अब फ़िल्मों में हिंदू मुस्लिम किरदार, भारतीय संस्कृति का प्रचार करते नहीं दिखते। हालांकि गलत कामों में लिप्त हिंदू मुस्लिम समुदाय के लोग, एकता का परिचय जरूर दे रहे हैं। वह एक साथ बिना धार्मिक भेदभाव अपराध करते हैं। उनके बीच विवाद होता भी है तो अपने वर्चस्व के लिए ना कि धर्म के लिए। मिर्जापुर मे आप ये आपराधिक भाईचारा कई जगह पर देख सकते हैं। कालीन भैया के वफादार मकबूल से लेकर गुड्डू पंडित और शबनम की प्रेम कहानियों तक, वेब सीरीज में सबका तड़का बड़े जोर शोर से लगाया गया है।
एक और प्रकाश झा की फिल्म में निराला बाबा हिन्दू संत बनकर लोगों का शोषण करता है तो दूसरी और मिर्जापुर मे हिन्दू और मुस्लिम किरदार, सयुंक्त रूप से देश में अराजकता फैलाने का काम कर रहे हैं। बाबा निराला महिलाओं का शोषण करने से पहले उन्हें नशीला लड्डू खिलाकर मदहोश करते हैं, उसके बाद उनका शोषण करते हैं। इतना ही नहीं, उन्हीं लड्डुओं में नशीला पदार्थ मिला होने से देश का यूथ में भी उन्हें जमकर पंसद करता है, जिससे आश्रम के लड्डुओं की खपत में जबरदस्त उछाल आता है और इन्ही लड्डुओं के उछाल ने आश्रम वेब सीरीज के फ़िल्मकारों और कलाकारों के मंद पड़े कैरियर में भी काफी उछाल ला दिया है।
जिस तरह आश्रम के लड्डू दर्शकों को दोनों सीजन के बीस एपिसोड तक बांधे रखते हैं उसी तरह मिर्जापुर के देशी कट्टो के व्यापार पर बनी सीरीज को भी दर्शकों ने काफी सराहा है। मिर्जापुर के एक दृश्य में मुन्ना त्रिपाठी पेशाब के हल्के छींटे लगने पर पेशाब घर में बेदर्दी से एक आम आदमी की, उस्तरे से गला काट कर निर्मम हत्या कर देते हैं जो वर्तमान में आम आदमियों की वास्तविक स्थिति का वर्णन करती है।
“गुड्डू पंडित और बबलू पंडित, इस शहर में रहना है तो ये दो नाम अच्छे से याद कर लो” जैसे संवाद उत्तर प्रदेश के शासन का काल्पनिक विवरण देते हैं।
मिर्जापुर के नायक का मिर्जापुर को अमेरिका बनाने का सपना, ठीक उसी तरह है जैसे आश्रम के बाबा निराला का, लोगों मोक्ष दिलाना। मिर्जापुर के वेश्यालयों और आश्रम के महिला शोषण दृश्यों मे उतनी ही समानता है जितनी बलात्कार और मर्ज़ी से प्रेम प्रसंग बनाने में। मिर्जापुर मे त्रिपाठी खानदान भले ही पूरे शहर पर राज करता हो लेकिन अंदर ही अंदर सबकी एक दूसरे से दुश्मनी भी उजागर है। वृद्ध त्रिपाठी द्वारा अपनी ही बहु का यौन शोषण और बहू का नोकर के साथ अवैध संबंध, हमारे सामाजिक संस्कारों को आईना दिखाता है।
दोनों ही वेब फ़िल्मों की कहानी का केंद्रीय बिंदु देश की राजनीति पर निर्भर रहता है जिससे स्पष्ट होता है कि हर दौर में, हर जगह गलत कामों को हवा राजनीति से ही मिलती रही है। विभिन्न राजनीतिक दल अपने दूध के धुले होने का कितना ही दावा करे लेकिन प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक अगर समाज में अपराध है तो इसके पीछे, कहीं ना कहीं राजनीति का हाथ निश्चित होता है। चुनाव के जिम्मेदारों के यह संवाद की “चुनाव फेयर हो ना हो, फेयर दिखना चाहिए” हमे, हमारी मजबूत लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सोचने पर मजबूर करता है। आश्रम में बाबा निराला यह कहते हुए महिलाओ का शोषण करते हैं कि, ‘जो नस में उतर जाता है उसकी नथ उतारनी पड़ती हैं’ तो मिर्जापुर मे वृद्ध त्रिपाठी यह कहते हुए अपनी ही बहु का शोषण करते हैं कि” शेर के मुँह हिरनी का नर्म गोश्त लग गया है।”
विभिन्न प्रकार की कहानियों से यह भी जाहिर है कि फ़िल्मों में हिंसा, हवस और अन्य जघन्य अपराध व्यक्तिगत या राजनीतिक लाभ पर आधारित होते हैं तो फिर फ़िल्मों को धर्म के एगंल से देखना उचित नहीं है। अगर दर्शकों को मिर्जापुर के बबलू पंडित और शबनम के किसिंग सीन से कोई परेशानी नहीं है तो फिर “ए सूटेबल बॉय’ मे मुस्लिम नायक और हिन्दू नायिका के किसिंग सीन के विरोध पर भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। अगर एक दृश्य लव जिहाद कहा जाता है तो निश्चित रूप से दूसरे तरह के दृश्य को भी कुछ ना कुछ तार्किक नाम देना होगा तब आप सही मायने में दर्शक हो।
आश्रम के लड्डुओं के साथ साथ फ़िल्मकार ने उसमे संगीत का तड़का भी बड़े अच्छे तरीके से लगाया है। टीका सिंह नाम के सिंगर का ‘बाबा लाएंगे क्रांति ‘ भक्तों में एक नयी तरह की आधुनिक भक्ति की ऊर्जा का संचार कर देता है।
आश्रम और मिर्जापुर दोनों ही वेब सिरीजों का, देश में पुरजोर विरोध प्रदर्शन हुआ है और होना भी चाहिए लेकिन फ़िल्मों के विरोध और प्रदर्शन के साथ साथ समाज में हो रहे अपराध और उसमे लिप्त सरकारी व्यवस्था पर जनता का चुप्पी साधे रहना समझ से परे होता है। जो कटेंट हमे वेब सीरीजों के माध्यम से प्रस्तुत किया जा रहा है, उसमे हमारे समाज और सामाजिक प्राणियों का हूबहू चित्रण है। कहानी में परोसी जाने वाली भद्दी गालियाँ देखना और सुनना निसंदेह गलत है लेकिन यही गालियाँ हम रोज मर्रा जिंदगी में घरों, मोहल्लों और शहरों में सुनते हैं तो फिर किसी को क्यों ऐतराज नहीं होता है?
अगर यही चीजे वास्तविक जिंदगी में समाज मे घटित नहीं होगी तो हो सकता है फ़िल्मकारों को फिर से अलग विषयों पर कहानियां बनानी पडें, जिस प्रकार अन्य देशों की फिल्मी कहानियों में होता है। विदेशी और भारतीय फ़िल्मों की कहानियों का तुलनात्मक अध्ययन करने से पता चलता है कि फ़िल्मकार वही दिखाने की कोशिश करते हैं जो समाज में वास्तविकता में घटित होता है।
नासिर शाह (सूफ़ी)
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