रोटी वाली बाई… एक लघु कथा ( पर व्यथा हर घर की ) गेस्ट रिपोर्टर बशीर शाह साईं पाटौदी)
सुबह स्कूल खोलने से पहले ही वह स्कूल में पहुंच जाती थी कुछ बच्चे जो पहले आते थे वह उनको दूर से ही देख कर पता कर लेते थे कि रोटी वाली बाई आ चुकी की है फिर शुरू होता पानी भरना सफाई करना और फिर सब्जी लाना और उसके बाद में रसोई में जाकर जम जाना सत्तर -अस्सी बच्चों के लिए बड़े ही जतन से वह रोटिया बनाती थी सब्जी बनाती थी और हमेशा ही मैंने देखा कि वह सफाई के प्रति बड़ी ही सजगता से कार्य करती और कभी-कभी मुझे भी कहती माड़ साहब मुझे सफाई बहुत पसंद है| और मुझे गंदगी से नफरत है इसलिए काम में देरी भले हो जाए! लेकिन मैं अपना काम अपने तरीके से ही करूंगी मैं क्या कहता मेरी मां की उम्र की यह बाई और फिर मुझे पता था यहां पर काम करती है इसके पीछे भी बहुत बड़ा राज है कोई भी मजबूरी के बिना इतना मेहनत वाला और रोजाना समयबध्द रूप से काम करना नहीं चाहता कारण सीधा सा था इतनी मेहनत और जद्दोजहद के बाद मिलने वाला इनका मानदेय सिर्फ और सिर्फ तेरह सौ बीस ₹ उस पर भी हाल यह कि यह सरकारी मानदेय (शोषण करने का लीगल तरीका) पैसा कभी-कभार साल में एक दो बार इनके अकाउंट में जरूर दिख जाता जब भी यह मानदेय इनके खातों में आता तो यह जरूर कहती माड़ साहब यह कैसा सिस्टम है? हम गरीब आदमी अनपढ़ ठहरे कब तो बैंक जाएंगे? और फिर कौन साइन करेगा? और कौन पर्ची भरेगा? कब पैसा मिलेगा ?क्या यह नहीं हो सकता कि आप मुझे पैसा दे दे और आप अपने खाते में मेरा पैसा डाल दे! मैं एक बार फिर निशब्द सा हो जाता।लेकिन मेरी भी मजबूरी होती इस सिस्टम को बदलना मेरे वश में नहीं था आज मैं जैसे ही स्कूल पहुंचा था। वह भी आ चुकी थी आते ही चर्चा शुरू हो गई माड़ साहब मेरी तनख्वाह आई क्या ?
मैंने कहा बाई जी आप की तनख्वाह नहीं आई है जैसे ही आएगी मैं आपको खबर कर दूंगा उसने कहा माड़ साहब घर में बड़ी तंगी का हाल है आपको तो पता ही है चार लड़कियां है उन को स्कूल भेजना स्कूल की जरूरते पूरी करना मुश्किल का काम है और तुम्हारे काका जी भी अब तो बीमार रहने लगे हैं उनकी दवाइयां भी बढ़ती ही जा रही है क्या करूं? कुछ समझ में नहीं आता किसके पास जाऊं।जो मदद करे उनकी यह बात सुनकर मेरा दिल रो पड़ता। लेकिन करूं तो मैं भी क्या करूं? मेरे पास भी सेवाएं अध्यापक वाली सारी की सारी लेकिन मैं भी एक संविदा कर्मी था मेरा घर भी बड़ा ही मुश्किल से चल रहा था मेरा मानदेय साढ़े सात हजार ₹ था और फिर घर के खर्चे और बीमारी और फिर बच्चों का खर्चा अलग से इनकी मदद करूं तो कैसे करूं मैंने अपनी मजबूरी उनके सामने रख दी। बाई जी भले ही आप मुझे कुछ भी कह लो लेकिन आपको तो पता ही है| मैं ठहरा मदरसा पैरा टीचर जिस तरह से अध्यापक को पचास से साठ हजार ₹ मिलते हैं उतने पैसे तो हमेंआठ -दस माह के मिलते हैं ऊपर से दो माह से मेरा भी मानदेय सरकार ने नही दिया है। फिर भी मै कोशिश करता हु कंही से जुगाड़ करने की। साथ ही मेरा ध्यान घर की तरफ चला गया घरवाली ने आज साफ कह दिया था घर मे रसोई का सामान लाने पर ही शाम का खाना बनेगा और हां रुस्तम (मेरा बेटा) के सर भी आये थे। फीस जमा करने का बोला है तो वो शाम को वापस आएंगे। अरे माड़ साहब ध्यान कँहा है सब्जी नही लानी है क्या ?उसकी आवाज से मेरा ध्यान भंग हुआ। माड़ साहब ये बीमारी कैसी आई है? कोरोना! क्या स्कूलों में भी दोबारा छुट्टियां पड़ेगी? मैने कहा “हाँ” तो मेरी तनख्वाह ? बात वापस मेरी और उनकी दुखती रग पर आ चुकी थी! मैंने अपनी बात को खत्म करने के साथ कह दिया सरकार कल से ही बच्चो की छुट्टियां कर सकती है तो अब मानदेय कब आए निश्चित नही है। वाह ईश्वर तेरी माया नाम रोटी वाली और खुद को रोटी के लाले।
– गेस्ट रिपोर्टर बशीर शाह साईं पाटौदी
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