खूबसूरत शादीशुदा महिला की प्रेम कहानी है नॉवेल इबादत

Sufi Ki Kalam Se

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक – इबादत (नॉवेल)
लेखक – नदीम अहमद ‘नदीम’
समीक्षक – नासिर शाह ‘सूफ़ी’



‘तेरे पास बैठना भी इबादत
तुझे दूर से देखना भी इबादत
ना माला ना मन्तर
ना पूजा ना सजदा
तुझे हर घड़ी सोचना भी इबादत।”

किसी को तोहफे में महंगी चीज़े मिलती है तो किसी को यादगार चीजे, मुझे तोहफ़े में ‘इबादत’ मिली। जी हाँ, परसों ही मुझे बीकानेर के एक बेहतरीन लेखक नदीम अहमद ‘नदीम’ साहब ने उनका पहला उपन्यास ‘इबादत ‘ तोहफ़े के तौर पर भेजा। यह इबादत खुदा की इबादत के बारे में न होकर महबूबा से इश्क़ की इबादत के बारे में थी। जिस तरह मशहूर उर्दू लेखिका ने मध्यम दर्जे के मुस्लिम परिवारों पर कलम चलाई थी उसी तरह नदीम अहमद ने इक्कीसवीं सदी में, उनके नक्शे कदम पर चलने की कोशिश करते हुए इबादत लिखा। जिस दौर में बड़े पर्दे पर इमरान हाशमी जैसा रोमांस और छोटे पर्दे पर बिग बॉस जैसा कंटेंट दर्शकों को परोसा जा रहा है उस दौर में नदीम अहमद नदीम ने साहित्य के जरिए एक गुमनाम मोहब्बत को इबादत का रूप देकर पेश किया है।
नॉवेल की कहानी लुबना नाम की एक बेहद हसीन विवाहित महिला के इर्द गिर्द घूमती है जो पेशे से एक शिक्षिका है। लुबना जितनी खूबसूरत थी उससे कई ज्यादा मज़बूर थी। इतनी मजबूर की एक अयोग्य इंसान से बेमेल शादी करनी पड़ी उसके अलावा शुरू से आखिर तक कदम – कदम पर गंदी नजरो वाले पुरुषों का सामना एक मजबूर औरत के तौर पर करना पड़ा। इस मतलबी दुनिया में नवेद नाम का एकमात्र लड़का लुबना का हमदर्द बनकर सामने आता है जो इस नॉवेल का हीरो भी है। लुबना और नवेद की प्रेम कहानी समाज का वास्तविक आईना पेश करता है मगर ये दोनों जिस धार्मिक पृष्ठभूमि से आते हैं वह इसके बिल्कुल उलट है। अच्छा होता है अगर इनकी कहानी मे लेखक ने धार्मिक नज़रिया भी पेश किया होता जिससे पाठकों को धार्मिक और वास्तविक दोनों मामले समझने में आसानी होती।
चूंकि लुबना एक शिक्षिका थी इसलिए लेखक ने लुबना के जरिए, राजस्थान के सरकारी स्कूलों की जीवंत व्याख्या की है। दूसरी तरफ जितनी मज़बूर लुबना है उतनी ही मजबूर और परेशान उसकी तीनों बहिनें भी लेकिन नॉवेल मे सिर्फ आमना और माजिद की जोड़ी का ज्यादा जिक्र हुआ है। जितना जिक्र लुबना की बहिन आमना और उसके पति माजिद के रिश्ते का हुआ है उतना ही जिक्र लुबना और पति मुनीर के रिश्ते का भी होना चाहिए था जिससे पाठकों को नायिका से अधिक हमदर्दी पैदा हो सकती थी।
कहानी के ज्यादातर पन्ने नवेद और लुबना के बीच फोन पर बातचीत करने से भरे है जो कहानी की मांग भी थी और उसे लेखक ने हूबहू आज के प्रेमी प्रेमिकाओं की तरह पन्नों पर उकेरा है। हालांकि एक विवाहित महिला का अपने प्रेमी से इतनी बाते करना और पति को एक बार भी पता ना चलना, कहानी मे थोड़ा झोल भी पैदा करता है। नॉवेल मे एक जगह नायिका, नापाकी की हालत में मटकी को यह कहते हुए छूती है कि ‘पाकी नापाकी जाए बाढ़ मे’, यह संवाद नायिका के किरदार के साथ पूर्णतया न्याय नहीं करता है।
नॉवेल के बीच में जब अमृता प्रीतम एंट्री करती है तो पाठकों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मैं इसे लेखक की सबसे बड़ी उपलब्धि समझता हूं। जिस तरह एक परिपक्व फ़िल्मकार अपनी फिल्म में ठीक समय पर कहानी से मिलता जुलता नया किरदार पेश करके दर्शकों की तालियां बटोरता है, ठीक उसी तरह लेखक ने अमृता और साहिर की रूहानी मोहब्बत का जिक्र करते हुए लुबना और नवेद की कहानी को रूहानी मोहब्बत का सर्टिफिकेट दे दिया। जब नवेद अमृता और इमरोज़ के मोहब्बत भरे ख़त पढ़ता है तो उसकी रूह बैचैन हो जाती है जो उसे पाकीज़गी प्रदान करती है।
नॉवेल का मुख्य पृष्ठ, मुझे कहानी के अनुरूप इतना खास महसूस नहीं हुआ जितना कि कहानी हुई लेकिन नॉवेल मे जिस रूहानी मोहब्बत का जिक्र है वह वाकई में इतनी दिलचस्प है कि एक बार शुरू करने के बाद पूरा किये बिना छोड़ने की इच्छा नहीं होती। ‘बाबा जी के आशीर्वाद’ वाले संवाद ने मुझे खूब हँसाया, जब भी वह संवाद याद आता है तो अपनी हंसी नहीं रोक पाता हूं। नॉवेल में कई ऐसे उम्दा संवाद है जो नदीम साहब की साहित्यिक योग्यता को दर्शाते हैं।
आखिर में नदीम अहमद ‘नदीम’ साहब को इतना खूबसूरत तोहफ़ा पेश करने का बहुत बहुत शुक्रिया और साथ ही अदब की दुनिया में बेहतर मुस्तकबिल की दुआ करता हूँ।
नासिर शाह ‘ सूफ़ी ‘


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