गेस्ट ब्लॉगर हुमा मसीह का ब्लॉग, नारीवाद की आड़ में गौण होते मानवीय पहलू

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गेस्ट ब्लॉगर हुमा मसीह का ब्लॉग, नारीवाद की आड़ में गौण होते मानवीय पहलू

क्या मानवीय संवेदना और जज़्बात को जीडीपी में तौला जा सकता है? क्या किसी के बेशकीमती जज़्बातों की तुलना पैसा कमाने के लिए खर्च किए गए वक्त से हो सकती है? क्या किसी मां की अपनी औलाद के लिए, पति की पत्नी के लिए, भाई की बहन के लिए स्वभाविक रूप से पाई जाने वाली मोहब्बत को जीडीपी में गिना जा सकता है? इतिहास के पन्नों में दर्ज महान प्रेमी जोड़ों की तुलना कोई जीडीपी बढ़ाने के लिए किए गए कामों से करे तो इसे आप क्या कहेंगे? क्या किसी देश या समाज को आर्थिक दृष्टिकोण से आगे बढ़ने के लिए सिर्फ जीडीपी ही सबसे ज़रूरी शय हो सकती है?

मानवीय संवेदना और जीडीपी की यह बातें मैं इसलिए नहीं कह रही क्योंकि इनमें वाकई कोई तुलना संभव है, बल्कि यह बातें यहां इसलिए कहीं जा रही हैं क्योंकि नारीवाद के नाम पर लिबरल महिला लेखकों का एक बड़ा तबका गृहणी महिलाओं के अधिकारों की बात करते हुए मानवीय संवेदनाओं को जीडीपी से तौलने की कोशिश कर रहा है.

एक प्रमुख नारीवादी लेखिका नवभारत टाइम्स में छपे अपने आर्टिकल में कहती हैं कि, “आप अपने दुधमुंहे शिशु को जो दूध पिला रही हैं, वह जीडीपी का हिस्सा नहीं है. गाय, भैंस, भेड़, बकरी सबका दूध जीडीपी में गिना जाता है, आपका नहीं.” आगे आर्टिकल में औरतों और मर्दों के घरेलू काम करने के घंटे गिनाकर यह मैसेज दिया गया कि नौकरी न करने वाली औरतें घरेलू कामों में अपनी ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा खर्च करके कुछ हासिल नहीं कर रही या देश की जीडीपी में कोई योगदान नहीं दे रही हैं.

यहां सवाल यह है कि क्या जीडीपी बढ़ाने वाले काम करके ही किसी देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाया जा सकता है? क्या आर्थिक विकास मात्र ही देश के विकास का पैमाना हो सकता है? क्या बच्चे का पालन पोषण करने के लिए बेबी क्रेश शुरू करना चाहिए क्योंकि खुदके बच्चे पालने से जीडीपी नहीं बढ़ेगी और दूसरों के बच्चे पालकर पैसा कमाने से जीडीपी में इज़ाफ़ा होगा? प्यार और जज़्बात का हर वो पल जिसे कोई अपने जीवनसाथी, औलाद, भाई, बहन या दोस्तो के साथ गुज़ारता है उस पल की कोई कीमत नहीं है यदि वो देश के लिए आर्थिक, मौद्रिक ज़रिया न बने?

यूं तो वेश्यावृति का काम करने वाली महिलाएं शरीर बेच कर पैसे कमाती हैं और जीडीपी में योगदान देती हैं तो क्या बिना किसी नैतिक आधार पर परखे इसे केवल इसलिए सही क़रार दिया जायेगा क्योंकि वह जीडीपी में योगदान दे रही हैं? ऐसे और भी बहुत से उदाहरण हैं जिसे आप जोड़ सकते हैं.

मानवीय संवेदनाओं की तुलना जीडीपी से करना या गृहिणी महिलाओं के गृहिणी होने को एक तुच्छ चीज़ मानना तथाकथित नारिवादियों की संकुचित मानसिकता है. स्त्री मुक्ति का झंडा बुलंद करते वक्त किसी भी मनुष्य को यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रेम, हमदर्दी, लगाव और वात्सल्य से उपर कोई वाद नहीं. कोई विचार चाहे मर्दवाद हो या नारीवाद यदि वह किसी के आत्मसम्मान पर कुठाराघात करता है तो यह उस ‘वाद’ और विचार के संकुचित और निरंकुश होने की निशानी है.

कुछ समय पहले अनुभव सिन्हा की एक फ़िल्म “थप्पड़” पर एक लिबरल लेखिका अपने रिव्यू में नायिका के सलवार कमीज़ पहनने और उसके गृहिणी होने पर अफसोस ज़ाहिर कर रही थी. उनके अनुसार एक प्रोफेसर की बेटी सिर्फ एक गृहिणी नहीं हो सकती और यह कैसे संभव है कि एक आधुनिक लड़की सिर्फ सलवार कुर्ता और साड़ी पहने? यहां लेखिका साफ तौर पर किसी महिला के गृहिणी होने और सलवार कुर्ता पहनने के चुनाव पर सवाल खड़े करके एक पक्षपाती रवैया अपना रही हैं. अजीब बात है कि वो अपने लिए अपने पसंद के कपड़े पहनने की आज़ादी चाहती हैं लेकिन दूसरे की आज़ादी को वो स्वयं परिभाषित करना चाहती हैं.

मेन स्ट्रीम मीडिया की एक बड़ी एंकर कुछ समय पूर्व मशहूर संगीतकार एआर रहमान की बेटी के नकाब पहनने की आलोचना करते हुए उसे उसकी कंडीशनिंग कह कर आलोचना कर रही थीं. पश्चिमी वस्त्र पहनकर खुद को आधुनिक मानने वाली लिबरल महिलाओं की कंडीशनिंग खुद टीवी कर रहा है, उसी टीवी से वो अपना ड्रेस सेंस तय कर रही हैं, वो खुद अपनी कंडीशनिंग का विश्लेषण न कर अपनी मर्ज़ी से नकाब पहनने वाली एक लड़की की चॉइस को गुलामी बताती हैं.

हालांकि यह एक तथ्य है कि एक मनुष्य शिशु से किशोर तक और फिर वयस्क होने तक कंडीशनिंग से ही चीज़ें सीखता है. किस की कंडीशनिंग मानव विरोधी है और किसकी नहीं इस आधार पर यदि लिबरल दुनिया चर्चा करे तो ज़्यादा बेहतर होगा. स्त्री अधिकारों का टैग लगाकर आप किसी से उसका चुनाव का अधिकार नहीं छीन सकते.

आधुनिक होने का जो अर्थ पूंजीवाद प्रस्तुत करता है उसी परिभाषा के अनुसार तथाकथित लिबरल लेखिकाएं दूसरी महिलाओं को जज कर रही है.

यहां यह भी तथ्य काबिले गौर है कि आधुनिक कही जाने वाली पढ़ी लिखी नौकरी पेशा महिलाएं अपनी वेशभूषा तथाकथित आधुनिकता की परिभाषा के अनुसार निश्चित करके भौतिकवाद और बाज़ारवाद की गुलाम हो रही हैं. मेकअप की एक मोटी परत अपने चेहरे पर लगाना, नाखूनों पर नेल पेंट का प्लास्टिक पेंट करना, कम कपड़े पहनने पर जो हिस्सा दिखाई देगा उसकी वैक्सिंग करवाना आदि चीज़ें आधुनिक कहलाने वाली महिलाओं के बीच कॉमन है. जो इन पैमाने पर खरा नहीं उतरता वो पिछड़ा हुआ या कंडीशनिंग का शिकार कहा जाएगा. लिबरल दुनिया का स्त्री विमर्श इस दोहरी मानसिकता पर आपत्ति नहीं करता है क्योंकि विमर्श के झंडाबरदार खुद इसी तौर तरीके को अपनाते हैं.

थप्पड़ का रिव्यू लिखने वाली लेखिका हों या जीडीपी को वात्सल्य पर महत्व देने वाली लेखिका यह दोनों ही किसी महिला के गृहिणी होने पर आपत्ति कर रही हैं. ऐसा करते हुए यह तथाकथित नरिवादियां एक महिला के चुनाव के अधिकार पर हमला कर रही हैं, उसके आत्मसम्मान पर हमला कर रही हैं.

अगर हम विचार करें तो पाएंगे कि हर व्यक्ति कमाने वाला हो ये मानसिकता मुख्य रूप से उपभोक्तावाद और पूंजीवाद की ही देन है, जहां हर आम इंसान या तो पूंजीपतियों के प्रोडक्ट का उपभोक्ता होगा या उनकी फैक्ट्री का कोई कर्मचारी. उसकी पकड़ से कोई अछूता नहीं है.

नारीवादी महिलाएं औरतों के अधिकार हासिल करने के लिए उनका नौकरी करना सबसे ज़रूरी मानती हैं. यह एक ख़तरनाक सोच है जो हर महिला और पुरुष को उपभोक्तावाद का मज़दूर बना देगी और इस दुनिया में सिर्फ मज़दूर पैदा होंगे, संवेदनशील नागरिक नहीं.

स्त्री मुक्ति की अग्रदूत अपनी साथियों से यह कहना चाहूंगी कि स्त्री अधिकारों के विमर्श के दायरे को हमें और बड़ा बनाना होगा. किसी खास धर्म, समुदाय या लिंग के प्रति पूर्वाग्रहों से ग्रसित होने से स्त्री विमर्श उपभोक्तावाद के हाथ का खिलौना बन सकता है और इसे आसानी से हाईजैक किया जा सकता है.

हमें रवींद्रनाथ टैगोर के कथन को याद करना चाहिए जिसमें वो कहते हैं “मैं इंसानियत पर देशभक्ति की जीत नहीं होने दूंगा”. इसी प्रकार हमें भी ‘संवेदना’ पर नारीवाद को हावी नहीं होने देना है. जब ऐसा होता है तो लोगों के मानवाधिकारों का उल्लंघन होने की संभावना बढ़ जाती है.

स्त्री विमर्श सिर्फ मर्दवाद और पितृसत्ता की लड़ाई नहीं है बल्कि यह बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद से भी एक संघर्ष है. अगर हम सिर्फ पितृसत्ता और मर्दवाद से लड़ेंगे तो उपभोक्तावाद, स्त्री विमर्श को हाईजैक कर स्त्री अधिकारों की परिभाषाएं तय करने लगेगा, औरत को एक सेक्स ऑब्जेक्ट बना देगा, महिला और पुरुष को एक दूसरे के सामने खड़ा कर उन्हें दुश्मन बना देगा.

मां के दूध को जीडीपी में काउंट करने की कोशिश करने वाली महिलाओं को यह नहीं भूलना चाहिये कि जो नागरिक देश के जीडीपी में सहयोग कर रहे हैं उनके इस सहयोग में देश की करोड़ों माँओ के दूध का महत्वपूर्ण योगदान है. माओं ने दूध पिलाकर उन्हें इस क़ाबिल बनाया है कि वह देश की आर्थिक समृद्धि में सहभागी हों. एक माँ का यह क़र्ज़ किसी देश के आर्थिक पंडित या नारीवाद के ध्वज वाहक कभी अदा नहीं कर सकते.

~ गेस्ट ब्लॉगर हुमा मसीह


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