संवाद 1-
“ये तीन लडकियाँ अपनी दिहाड़ी में सिर्फ तीन रुपया बढ़ाने की माँग कर रही थी..
तीन रुपया…
जो मिनरल वाटर आप पी रहे हैं.. उसके दो या तीन घूँट के बराबर.. उनकी इस गलती की वजह से उनका रेप हो गया सर…उनको मार कर पेड़ से टांग दिया गया, ताकि पूरी जात को उनकी औकात याद रहे।”
संवाद 2-
” हम कभी हरिजन हो जाते, कभी बहुजन हो जाते हैं
बस जन नहीं बन पा रहे हैं कि जन गण मन में हमारी भी गिनती हो जाए”
संवाद 3-
“वो इस किताब की नहीं चलने देते, जिसकी ये शपथ लेते हैं ”
“यही तो लड़ाई है निषाद. उस किताब की चलानी पड़ेगी,
उसी से चलेगा देश।”
सटीक एंव सत्य आधारित संवादों से सजी अनुभव सिन्हा की फिल्म आर्टिकल 15 भारतीय समाज का आईना दिखती है। फिल्म की शुरूआत ” कहब त लग जाये धक से..’ एक व्यंग्यात्मक गीत से होकर शीघ्र ही सस्पेंस पैदा कर देती है। उत्तर प्रदेश के एक काल्पनिक गांव लालगाँव में अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) की आईपीएस के रूप में पहली पोस्टिंग होती है जहाँ जातिगत भेदभाव चरम पर है। गाँव से तीन लड़किया अचानक गायब हो जाती है जिसमें से दो अगली सुबह पेड़ से लटकी हुई मिलती है और तीसरी की कोई खबर नहीं मिलती है। एक भ्रष्ट पुलिस अफसर ब्रहमदत्त (मनोज पहुआ) बरामद हुई दोनों ल़डकियों के खून का आरोप ल़डकियों के पिता पर लगाकर दोनों को जैल मे डाल देता है। नए पुलिस अधीक्षक( आयुष्मान खुराना) की पहली पोस्टिंग होने की वजह से वो सच्चाई जानते हुए भी उचित कारवाई नहीं कर पा रहे थे तभी उनकी प्रेमिका अदिति (ईशा तलवार) जो एक स्वतंत्र विचारक एंव ब्लॉगर होती है वो आयुष्मान को सच के साथ हिम्मत से खड़े रहने के लिए ये कहते हुए प्रेरित करती है “मुझे हीरो नहीं चाहिए बल्कि वो चाहिए जो किसी हीरो का इंतजार ना करे”।
” सर इन लोगों के ये रोज का काम है ये लोग ऐसे ही रोजाना झूठे केस लाते रहते हैं। ”
आयुष्मान दिन रात एक करके केस में पूरी जान लगा देते हैं सबूत के साथ आरोपियों तक पहुंच जाते हैं तभी अचानक वही होता है जो देश में और बाकी हिन्दी फ़िल्मों में हमेशा होता आया है। विधायक के इशारों पर केस को सीबीआई के हवाले करते हुए आयुष्मान को सस्पेंड कर दिया जाता है। आयुष्मान पुलिस स्टेशन की मुख्य दीवार पर लगी डॉ अम्बेडकर और महात्मा गांधी की लटकती हुई तस्वीरों के साथ स्वयं को भी उन लटकती हुई तस्वीरों की तरह असहाय महसूस करते हैं।
– नासिर शाह (सूफ़ी)