भाग- 12 “चूल्हे का इस्तेमाल” “आओ चले..उल्टे क़दम, कुछ क़दम बीसवीं सदी की ओर “  

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सूफ़ी की क़लम से…✍🏻

आओ चले..उल्टे क़दम, कुछ क़दम बीसवीं सदी की ओर “  

भाग- 12 “चूल्हे का इस्तेमाल

बीसवीं सदी के आखरी दौर में जब गैस चूल्हे का चलन शुरू हुआ तो देश के सभी हिस्सों में गैस चूल्हा लाना एक सपना हो गया । लोग सक्षम होते गए और घर घर की रसोई में गैस के चूल्हे आने लगे । पहले शहरी क्षेत्र में और फिर गाँव गांव में देशी मिट्टी के चूल्हे लुप्त होने लगे और कुछ सालों में ही गैस चूल्हे का आंकड़ा बढ़ गया । अब हर कोई खुश था कि उन्हें चूल्हे की उठापटक और उसके हानिकारक धुएँ से निजात मिल गई लेकिन आधुनिक गैस चूल्हे की यह ख़ुशी ज़्यादा दिनों तक नहीं रही। चूल्हे का खाना पसंद करने वाले गैस के पके खाने से पूर्णतया संतुष्ट नहीं हो सके और उन्होंने गैस वाले घर में भी पार्ट टाइम मिट्टी या सीमेंट के चूल्हे स्थापित करना शुरू कर दिया । 

गैस और देशी चूल्हे में अंतर:- 

निसंदेह गैस वाले चूल्हे में काफ़ी कम समय में और आसानी से खाना मिल जाता है और जब चाहे तब आसानी से इस्तेमाल कर सकते हैं जबकि देशी चूल्हे में शुरुआत में भी काफ़ी समय लगता है और खाना पकाने में भी,  ऊपर से हानिकारक धुएँ का सामना भी करना पड़ता है । 

अब बात दोनों के पके हुए खाने की करें तो गैस के चूल्हे की तुलना में देशी चूल्हे का स्वाद लाजवाब होने के साथ ही पौष्टिक भी होता है क्यूंकि इसमें खाना धीरे धीरे पकता है ,जिस कारण इसमें मौजूद पोषक तत्व नष्ट नहीं होते हैं और खाने की देशी ख़ुशबू पेट भरने के साथ ही दिल को तृप्त कर देती है जबकि गैस चूल्हे में पौष्टिकता, देशी की तुलना में कम होती है क्यूँकि तेज आँच में खाना पकने से कई सारे पोषक तत्व कम हो जाते हैं । संक्षिप्त में बात करें तो तो दोनों ही चूल्हे का अपना अपना महत्व है लेकिन हम इस “उल्टे क़दम अभियान” में पुरानी चीज़ों के फायदे की बात कर रहे हैं तो देशी चूल्हे की अवहेलना करना बेईमानी होगी । हमारा मकसद आधुनिक गैस चूल्हे का विरोध करना नहीं है बल्कि सिर्फ़ देशी चीज़ों का महत्व बताते हुए उनसे जुड़े रहने की कोशिश मात्र है । जिस किसी ने देशी चूल्हे का खाना खा रखा है वह निश्चित रूप से इसका महत्व समझते हैं और आज के इस युग में भी अपने आधुनिक घर के किसी कोने को देशी बनाकर मिट्टी ,सीमेंट या अन्य धातु का चूल्हा सजा रखा होगा और जिन्होंने कभी देशी चूल्हे का खाना नहीं खाया हो उन्हें एक बार जरूर इसका स्वाद चखना चाहिए ।

लकड़ी से कोयला बनते ,देशी चूल्हे की सुलगती आग में रोटियों के फूलने की खुशबू और सब्जी के भगोने से निकलती हुई वास्प, इंसान के नथुनों में खाने से मोहब्बत पैदा कर देती है और साथ ही पीतल की कड़ाही में उबलती चाय चलते फिरते इंसानों को मदहोश कर देती है । लोहे की फूँकनी, खड़चू और चिमटे की खनखनाहट तवे से टकराकर इंसानों के पेट को खाने के लिए दावत देती है तो व्यस्त से व्यस्त आदमी भी सब काम छोड़कर चूल्हे के सामने देशी ठाठ में आलती पालती लगाकर बैठने को मजबूर हो जाता है ।

अगर आपने ये सब अनुभव किया है तो आपकी किस्मत को सलाम और ऐसा नजारा नहीं देखा हो तो कोशिश करें इस देशी ठाठ का लुत्फ लेने का । आप भी देशी चीजो के अनुभव हमारे साथ साझा कर सकते हैं । सबसे अच्छे चुनिंदा अनुभवो को किताब में प्रकाशित किया जा सकता है । अपने अनुभव व्हाट्सएप करें 9636652786

मिलते है अगले भाग में ।

आपका सूफी 

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27 thoughts on “भाग- 12 “चूल्हे का इस्तेमाल” “आओ चले..उल्टे क़दम, कुछ क़दम बीसवीं सदी की ओर “  

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