क्यों राजस्थान के सियासी मुस्तक़बिल की चाबी मुस्लिम वोटरों के हाथ में भी दिखती है?

Sufi Ki Kalam Se

_विशेष लेख_

क्यों राजस्थान के सियासी मुस्तक़बिल की चाबी मुस्लिम वोटरों के हाथ में भी दिखती है

_राजस्थान में 2023 में विधानसभा चुनाव है_

✒️ गेस्ट ब्लॉगर एडवोकेट अन्सार इन्दौरी
( _लेखक राजस्थान हाइकोर्ट में अधिवक्ता हैं_)

मौजूदा सूरते हाल में राजस्थान की सियासत का मुस्तक़बिल इस मुकाम पर आकर टिका है कि सूबे के मुसलमानो का झुकाव किस तरफ होगा।
राजस्थान में मुस्लिम आबादी 9 प्रतिशत है, लेकिन मतदाताओं के तौर पर यह समुदाय सूबे की 36 सीटों को प्रभावित करता है। इनमें 15 सीटें मुस्लिम मतदाताओं के वर्चस्व वाली हैं तो 8 से 10 सीटें ऐसी हैं, जहां बड़ा मुस्लिम वोट बैंक है और चुनाव के नतीजे तय करता है। यही वजह है कि इन सीटों पर कांग्रेस और भाजपा अपने मुस्लिम उम्मीदवार उतारती रही हैं। मगर इन सीटों का तज़्ज़िया करने पर हैरान कर देने वाली बात सामने आई है कि पिछले 5 विधानसभा चुनावों में भाजपा के मुस्लिम उम्मीदवारों का जीत प्रतिशत कांग्रेस से ज्यादा है। गुज़िश्ता पांच चुनाव में कांग्रेस ने विभिन्न सीटों से 79 उम्मीदवारों को टिकट दिया जिनमें से 33 ने जीत हासिल की। वहीं भाजपा ने 15 को टिकट दिया जिनमें से 6 ने जीत दर्ज की। अगर 1998 से अब तक की राजनीति का विश्लेषण करें तो यह तथ्य दिलचस्प है कि सबसे ज्यादा चुनाव जीतने के मामले में सबसे आगे नागौर विधायक हबीबुर्रहमान रहे,हबीबुर्रहमान ने 1993 से 2013 तक 5 चुनाव लड़े हैं जिनमें से 4 जीते हैं। इनमें 2-2 बार भाजपा और कांग्रेस दोनों से हबीबुर्रहमान ने जीत दर्ज की है। 1993 और 1998 में मूंडवा से कांग्रेस प्रत्याशी रहते जीते तो 2008 और 2013 में उन्होंने नागौर से भाजपा के उम्मीदवार के रूप में जीत दर्ज की। 2003 में हबीबुर्रहमान कांग्रेस से लड़े थे मगर हार गए थे। सूबे में सिर्फ एक मुस्लिम मुख्यमंत्री हुए हैं प्रदेश में कांग्रेस की सरकार के समय बरकतुल्लाह खां दो बार मुख्यमंत्री रहे। वे नौ जुलाई 1971 से 16 मार्च 1972 और 16 मार्च 1972 से 11 अक्टूबर 1973 तक इस पद पर रहे। 11 अक्टूबर 1973 को उनकी मृत्यु हो गई थी।
एकमात्र मुस्लिम नेता माहिर आजाद हैं जो निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़े और जीते । उन्होंने 1998 में नगर सीट से जीत दर्ज की। 2013 में तत्कालीन गृह मंत्री शांति कुमार धारीवाल को भी कोटा सीट से नई सियासी पार्टी एसडीपीआई ने हरा दिया था। यूं निर्दलीय मुस्लिम उम्मीदवारों ने खेल कई बार बिगाड़ा भी है। कामां, धौलपुर, सवाईमाधोपुर, और नगर की सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी उतारे जाते रहे हैं। कामां से कांग्रेस ने हर बार मुस्लिम उम्मीदवार उतारा, मगर सिर्फ 2007 में जाहिदा खान जीती। सवाईमाधोपुर से 2003 में यास्मीन अबरार हारी तो 2008 में अलाऊद्दीन आजाद जीते। नगर सीट से कांग्रेस के मोहम्मद माहिर 2008 में जीते। 2018 के विधानसभा चुनावों में भाजपा का हिन्दुत्व कार्ड चाहे कामयाब नहीं रहा हो, लेकिन मुसलमान उम्मीदवारों पर दांव खेलने की कांग्रेस की रणनीति जरूर रंग लाई। इस चुनाव में आठ मुसलमान विधायक चुने गए हैं, जिनमें सात कांग्रेस के और एक बसपा का है। चुनाव में कांग्रेस से 14 मुस्लिम लड़े थे जिनमें से आधे सात चुनाव जीतने में कामयाब रहे।

चुनावों में कांग्रेस ने पंद्रह मुसलमानों को टिकट दिए थे। लेकिन, रामगढ़ सीट पर चुनाव स्थगित हो जाने के कारण 14 मुसलमान उम्मीदवार ही मैदान में बचे। वहीं भाजपा ने केवल एक मुसलमान टोंक से युनुस खां को टिकट दिया, जो कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट से चुनाव हार गए। लेकिन, कांग्रेस के 14 में सात मुस्लिम उम्मीदवार जीतने में कामयाब रहे। इनमें फतेहपुर से हाकम अली, किशनपोल से अमीन कागजी, आदर्श नगर से रफीक खान, कामां से जाहिदा, सवाईमाधोपुर से दानिश अबरार, पोकरण से सालेह मोहम्मद और शिव से अमीन खां चुनाव जीत गए। जबकि बसपा के टिकट पर नगर सीट से वाजिब अली विजयी रहे।

दरअसल, पिछले विधानसभा चुनाव में सुबे की सबसे प्रमुख दो सीटों, झालरापाटन और टोंक के वोटरों में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी रखने वाला मुस्लिम समुदाय वहां निर्णायक भूमिका निभाई थी।झालरापाटन में भारतीय जनता पार्टी की तरफ से मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे मैदान में थीं तो कांग्रेस ने पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह के बेटे और भाजपा से बाग़ी हुए मानवेंद्र सिंह पर दांव खेला था। वहीं टोंक में वसुंधरा सरकार में नंबर दो कहे जाने वाले यूनुस ख़ान और कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट आमने-सामने थे।

अगर झालरापाटन या झालावाड़ की बात करें तो यहां मुस्लिम मतदाताओं की संख्या करीब 45 से 50 हजार है। बतौर मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया से तमाम शिकायतों के बावजूद आलोचक भी उनकी ग़ैरसांप्रदायिक छवि की तारीफ करते रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के दबाव के बावजूद वसुंधरा राजे ने अपने पहले कार्यकाल (2003-08) में मुस्लिम नेताओं और अधिकारियों को खूब मौके दिए थे। इसके चलते प्रदेश के राजनैतिक गलियारों में यह बात कही-सुनी जाती है कि राजे सरकार में मुख्यमंत्री कार्यालय (सीएमओ ) व मुख्यमंत्री आवास (सीएमआर) दोनों की ही कमान मुसलमानों के हाथ में रहती है।

लेकिन दूसरे कार्यकाल (2013-18) में राजे अपनी इस खूबी को पूरी तरह भुनाने में नाकाम होती दिखी हैं। इसकी शुरुआत केंद्र में मोदी सरकार के आने बाद अक्टूबर-2014 से हुई जब अलवर जिले में हुई पुलिस की एक कार्रवाई में आरिफ़ खान नाम के एक नौजवान के मारे जाने की ख़बर आई। आरिफ़ के परिजनों के हवाले से एक बड़े अखबार ने दावा किया था कि दीवाली की छुट्टियों में घर आए आरिफ़ पर एक पुलिसकर्मी ने एके-47 से गोलियां दाग दीं।इसके बाद अप्रेल-2017 में अलवर में ही डेयरी कारोबारी पहलू ख़ान को भीड़ ने गोवंश तस्करी के शक में न सिर्फ पीट-पीट कर मार दिया बल्कि बाद में सभी आरोपियों को क्लीन चिट भी दे दी गई। इस तरह का तीसरा मामला भी अलवर जिले से ही सामने आया जब उमर मोहम्मद नाम के युवक को गोतस्करी के शक में मार दिया गया। उमर के परिजनों का आरोप था कि उसकी हत्या गोली मारकर की गई थी और शव को करीब पंद्रह किलोमीटर दूर रेलवे ट्रैक पर डाल दिया गया। जून-2017 में राजस्थान के प्रतापगढ़ में नगर परिषद कर्मचारियों पर ज़फ़र हुसैन नाम के शख्स की हत्या का आरोप लगा। उसके परिजनों ने आरोप लगाया कि खुले में शौच करती महिलाओं की फोटो ले रहे तत्कालीन नगर परिषद कमिश्नर और उनके सहयोगियों ने इसका विरोध करने पर ज़फ़र को लाठी-डंडों से जमकर पीटा था।नफरत के चलते हुए अपराध यानी हेट क्राइम के मामलों में साल-2017 की सबसे ज्यादा दहलाने वाली तस्वीर भी राजस्थान से ही आई जब राजसमंद में मोहम्मद अफराजुल नाम के प्रवासी मजदूर की बर्बर हत्या का वीडियो सोशल मीडिया पर अपलोड कर दिया गया था।मामला यहीं नहीं थमा,पहले तो आरोपित शंभूलाल रैगर के समर्थन में आयोजित जुलूस में शामिल लोगों ने उदयपुर कोर्ट की छत पर बेख़ौफ होकर तस्वीरें खिंचवाईं,फिर इसके कुछ महीने बाद (फरवरी में) शंभूलाल ने जेल के अंदर से ही एक भड़काऊ वीडियो वायरल कर प्रदेश की कानून व्यवस्था की भी पोल खोल कर रख दी। इन्तेहा तब हुई जब जोधपुर में उस वर्ष की रामनवमी के मौके पर शंभूलाल की झांकी भगवान राम के साथ निकाली गई। इन सभी मामलों में सरकार की शुरुआती चुप्पी से मुस्लिम समुदाय में जबरदस्त आक्रोश महसूस किया गया था। 2018 में आई कांग्रेस सरकार की मुसलमानो के ख़िलाफ़ बढ़ते अपराधों में खामोशी की बुनियाद पर जानकारों का कहना है कि इस आंच से सूबे का सियासी मज़ाज़ भी अनछुआ नहीं रह सकेगा। उधर, कॉंग्रेस में चल रहे सिर फुटव्वल के माहौल में मुसलमान कुछ कहने की हिम्मत भी नही जुटा पा रहा है।
सूबे में बदल रहे सियासी हालात में मुसलमानों के पास प्रेशर बिल्ड करके अपनी बातें मनवाने के गोल्डन चांस है। लेकिन समुदाय अपना कायद चुनने का तरीका और उसकी लियाकत भूल गया है। सूबे में तीसरे मोर्चे के भविष्य से इनकार करना सियासी बेवक़ूफ़ी होगी। इस तीसरे मोर्चे में
मुस्लिमों की हिमायत का दम भरने वाली सियासी पार्टियां न सिर्फ अहम रोल अदा कर सकती हैं,बल्कि पूरे सूबे की राजनीतिक दशा और दिशा दोनों बदल सकते हैं।

यह बात तब और ज्यादा मायने रखती है जब पिछले कई सालों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व अमित शाह के साथ वसुंधरा राजे की अनबन की ख़बरें लगातार सामने आती रही हैं। दिल्ली की राजनीति पर नज़र रखने वाले बख़ूबी जानते है कि प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह, संगठन में वर्चस्व को लेकर योगी आदित्यनाथ की ही तरह वसुंधरा राजे से भी असुरक्षा का भाव महसूस करते हैं। राजे को नाराज़ करके बीजेपी अपनी कब्र आप खोद देगी। तब आने वाला चुनाव बीजेपी के हाथ से निकलने से कोई नही रोक सकता है।जम्हूरियत में सियासत मौको को इस्तिमाल करने का नाम है। तीसरे मोर्चे की लीडरशिप वसुन्धरा राजे के हाथ मे भी जा सकती। सूबे में मौजूद अपनी मज़बूत टीम से वो बीजेपी को टक्कर तो दे ही सकती है।
चुनाव से ठीक पहले प्रदेश कांग्रेस में वैसी उठापटक होगी जैसी कि 2018 में गहलोत के मुख्यमंत्री बनने के वक़्त भी नहीं हुई थी। वहीं, जयपुर की सियासी गलियों में बेहद दबी आवाज में यह चर्चा भी है कि प्रदेश कॉंग्रेस के नेता डैमेज कंट्रोल करने में सफल रहे तो पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट और नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी की आपसी तनानती के बीच वे राहुल गांधी के ‘डार्क हॉर्स’ भी साबित हो सकते हैं।

तेज़ी से बदल रहे सूबे के सियासी हालात का ईमानदारी से तज़्ज़िया करके अगर मुस्लिम लीडरशिप मुस्तक़बिल का लाहे अमल तय करती है तो आने वाली नस्लो के लिए बेहतरीन मवाक़े दस्तयाब होंगे। दरख्शां माजी सूबे के सियासी मुस्तक़बिल की चाबी मुसलमानो को हाथ मे लेने की रहनुमाई करता है। नतीज़तन अपने आपको अनाथ समझ रहा ये समुदाय सियासी तौर पर ताकतवर बन सकेगा।
क्योंकि..
_तरक्कियों की दौड़ में उसी का ज़ोर चल गया_
_बना के अपना रास्ता जो भीड़ से निकल गया।_

गेस्ट ब्लॉगर एडवोकेट अन्सार इन्दौरी

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9 thoughts on “क्यों राजस्थान के सियासी मुस्तक़बिल की चाबी मुस्लिम वोटरों के हाथ में भी दिखती है?

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