द लल्लनटॉप अड्डा

Sufi Ki Kalam Se

सूफी की कलम से.. ✍🏻 (यात्रा संस्मरण)

जबसे साहित्य से जुड़ा था, तब से साहित्य से जुड़े प्रोग्राम ढूंढता रहता था। सोशल मीडिया के कारण पूरी दुनिया सिमट कर हाथो में आ चुकी, इसलिए घर बैठे बिठाए ही सारी दुनिया की खबरें मिल जाती है। इसी माध्यम से एक दिन दिल्ली में एक उत्सव का पता चला जो एक राष्ट्रीय चैनल ‘आज तक’ वालों की तरफ से होना था। प्रोग्राम तीन दिन का था वह भी दिल्ली। मगर जुनून ऐसा चढ़ा की तुरंत प्रोग्राम बनाया और दिल्ली के लिए रवाना हो गए।
कुतुब मीनार मेट्रो स्टेशन से हम केंद्रीय सचिवालय पहुंचें। पहुंचते-पहुंचते दो बज गए। दिल्ली में प्रदूषण के कारण कोहरा छाया हुआ था। नवंबर की हल्की सर्दी ने राजधानी की फिज़ा में ठंडक घोल रखी थी। इस चिलचिलाती सर्दी में हम तीन दोस्त राजस्थान से दिल्ली आए थे। दिल्ली में मेरे ममेरे भाई मंजूर दीवान रहते थे जो रक्षा मंत्रालय मे अफ़सर थे। उनके यहां से खाना खाकर और दिशा निर्देश प्राप्त करके हम अपनी मंजिल की तरफ बढ़े। सचिवालय से ढुंढ़ते-ढुंढते हम “इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला मंच” तक जा पहुंचें, जहां लल्लनटॉप अड्डा जमा हुआ था।


देश के प्रसिद्ध चैनल ‘‘आज तक’’ द्वारा आयोजित साहित्यिक मेला भी वहॉ सजा हुआ था, जहां बड़े-बड़े साहित्यकार, कलाकार, फिल्मकार, गीतकार जमा थे। कला मंच पर तीन स्टेज बने हुए थे, जहां तीन दिनों से यह रंगीला समारोह चल रहा था। हम आखरी दिन वहां पहुंचे वह भी आधे दिन बाद।
वहां पहुंचते ही महसूस हुआ कि यहां आने में हमने इतनी देर क्यों कर दी? इन बीते दो दिनो मे हम कई बडी हस्तियो के मार्गदर्शन से महरूम रह गये थे।
छोटी सी जगह पर इतनी बड़ी हस्तियां एक साथ मौजूद थी कि समझ नहीं आ रहा था कि पहले क्या देखें ? तीनों स्टेज पर एक ही साथ एक ही समय तीन कार्यक्रम चल रहे थे। मैंनें सबसे पहले कहानी लिखना तय किया, क्यों कि इसी मकसद से में इस फेस्टीवल में शामिल हुआ था। कहानी लिखने से पहले लल्लनटॉप अड्डे पर रजिस्ट्रेशन करवाया जहां से मुझे एक कॉपी और पेन दिया गया। मैंने चाय की स्टॉल क पास की बैंच को कहानी लिखने के लिए चुना मेरे दोनो दोस्त सलीम और शाहबाज ने मेरे लिए बैंच पर चाय व पानी की व्यवस्था की और दोनों मेले की सरगर्मियां देखने में मशगूल हो गए।


मेरा भी मन कर रहा था कि मैं भी उनके साथ जाकर सब देखूं लेकिन मेरे कहानी लिखने के जज्बें ने मुझे रोके रखा . मैं जल्द ही कहानी खत्म करना चाहता था क्यों कि उस चुलबुले मेले में मेरा चंचल मन अटक सा गया था। मैंने कहानी का शीर्षक ‘‘गो-जान’’ रखा और लिखना शुरू किया। पास ही के एक स्टेज से एक बड़े फिल्म राइटर के स्पीच की आवाज आ रही थी जिसमें वह कहानियां लिखने के तरीके बता रहे थे। दूसरी तरफ एक अद्भुत नाटक का मंचन चल रहा था। जिसके नायिका की दिल दहलाने वाली आवाज दर्शकों को अपनी तरफ बुला रही थी।
तीसरे मंच पर फिल्म अभिनेता शत्रुघ्न सिंहा थे जो ‘‘आज तक’’ के एंकर प्रशून वाजपेयी के साथ चर्चा कर रहे थे। तीनो मंच मेरा ध्यान खींच रहे थे। लेकिन मैंने अपने-आपको अपनी कहानी में डुबोने की कोशिश की। मेरी बैंच की बगल में एक पटना के लेखक थे, जो पहले से अपनी कहानी में तैर रहे थे। उसी बैंच पर सामने दो दिल्ली की लड़कियां थी, जिनमें से एक हिंदी ऑनर्स की छात्रा थी तो दूसरी उर्दू की।
हिन्दी की छात्रा की मस्कुराहट उसकी कहानी की खूबसूरती बयां कर रही थी। मैं कभी दो लाइन लिखकर सामने देखता तो कभी चार लाईन लिखकर दाएं देखता, तो कभी लल्लनटॉप अड्डे की जादु भरी आवाजे अपनी तरफ खींचती तो कभी लोगो का हुजूम दिल मे बैचेनी पैदा कर देता था। अचानक पीछे देखा तो एक खूबसूरत लड़की पर नजर ठहर गई जो चाय की चुस्कियां ले रही थी। दुबारा गौर किया तो पता चला कि ये मामूली लड़की नही हैं बल्कि आज तक चैनल की फैमस लेडी एंकर ‘‘श्वेता सिंह’’ थी। मुझे यकीन नहीं हुआ कि मैं इतना नजदीक से उन्हे देख रहा हूं। मैं बिना देरी किए उनके पास पहुंचा और एक सेल्फी की गुजारिश की। उनकी एक मुस्कुराहट ही मेरे फोन की सेल्फी बन गई। मैंने फिर अपनी जगह आकर कहानी में दौड़ना शुरू किया। दौड़ते-दौड़ते थोड़ा रुका तो सामने से भीड़ का एक समूह आ रहा था। जिसके बीच में फिल्म अभिनेता ‘‘शत्रुघ्न सिंहा’’ थे, मैंने उत्सुकता से साथी लेखकों से उनके पास चलने को कहा। बिहारी बाबू ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और छात्राओं ने मेरी इस हरकत पर थोड़ी स्माइल दी शायद यह उनके लिए आम बात थी, लेकिन मेरे लिए नहीं, इसलिए में तुरंत उठा और सिन्हा साहब की ओर बढ़ा और दौड़कर उन्हें भी अपने कैमरे में कैद कर लिया।

जल्द ही वापस आकर फिर से कहानी में खो गया, थोड़ी देर बाद जैसे ही सिर ऊपर किया तो सामने से एक माइक वाला खूबसूरत लड़का आता दिखाई दिया जिसके माइक पर लाल रंग से चमकता हुआ ‘‘आज तक’’ लिखा हुआ था। उन्हें इस तरह आता देखकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए, क्यों कि इससे पहले कभी मै राज्य स्तरीय चैनल के सामने भी नहीं आया था इसलिए इस तरह अचानक राष्ट्रीय चैनल वालों को सामने देखकर मेरे होश उड़े गए। माइक वाले ‘आज तक” के एंकर ‘‘सईद अंसारी’’ थे। जिन्हें मैंने पहचाना नही था। उन्होंने मुझ से कहानी प्रतियोगिता के ताल्लुक से कुछ सवाल पूछे, जिनका ना तो अब मुझे जवाब याद है ना ही सवाल। याद है तो बस वह चमकता हुआ माईक।


मेरे दोनों दोस्त वापस आ गए थे। हम तीनों हाड़ौती में जोर-जोर से बातें करके बिहार व दिल्ली वालों के सामने अपनी संस्कृति का प्रचार कर रहे थे। मैंने अपनी कहानी को पूरा करके जल्दी से जमा करवा दिया और हम तीनों एक साथ घूमने लगे। कभी लल्लनटॉप अड्डे पर गीत सुनते तो कभी आज तक का लाइव शो देखते तो कभी मैन स्टैज पर हो रहे मुशायरे को सुनते। बड़ी-बड़ी हस्तियां हमारे आस-पास थी, लेकिन हम सबकों नहीं जानते थे। और जिनको जानते थे उन्हें अपने फोन में कैद करने में जरा भी देर नहीं करते। पुस्तकों की प्रदर्शनियां भी लगी हुई थी जिन पर साहित्य प्रेमियां की भीड़ उमड़ रही थी। लल्लनटॉप के इस अड्डे पर हर इन्सान कुछ न कुछ पाने आया था। अधिकांश लोगो के चेहरे पर वह खुशी मौजूद थी जिसका बयान करने मे कई पेज और लिखे जा सकते है। मेरी खुशी का भी कोई ठिकाना नही था।
अब हमें घर वापसी की फिक्र हुई। सात बजे की गाड़ी से हमें कोटा आना था और घड़ी में शाम के पांच बज रहे थे। मेले में हम तीन घंटे रुके लेकिन इन तीन घंटों में हमने तीन सालों की खुशीयो को महसूस किया। साढ़े पांच बजे मेरे पसंदीदा उपन्यासकार ‘‘चेतन भगत’’ को आना था लेकिन हम उसी वक्त जगह छोड़ने को मजबूर थे। पांच बजे हम वहां से रवाना हुए। मन में बेहद खुशी थी। सिर्फ चेतन भगत से ना मिलने की छोटी सी कमी खल रही थी, जिसे मैंने यह कहकर दूर कर दिया कि शायद चेतन भगत की किस्मत में मुझसे मिलना नहीं है।’’

नासिर शाह (सूफ़ी)

  • नासिर शाह (सूफी)

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