सूफ़ी की कलम से
अंसारी दर्पण पर तब्सरा (समीक्षा) 2021
पता ही नहीं चला कि बातों – बातों में कब अंसारी दर्पण के सम्पादक जनाब रिज़वानुद्दीन साहब से जान पहचान हो गई। और सिर्फ जान पहचान ही नहीं, बल्कि उनसे मेरा एक खास किस्म का रिश्ता भी बन गया है। मैं उनकी शख्सियत से काफी मुतास्सिर भी हूँ। इस उम्र में भी अल्हम्दुलिल्लाह, रिज़वानुद्दीन साहब इतने सक्रिय है कि मेरे एक छोटे से इसरार पर उन्होंने तीन दिन के भीतर अंसारी दर्पण को मेरी लाइब्रेरी की ज़ीनत बना दिया। अब उनके इतने अच्छे अखलाक पर मेरा भी फर्ज बनता है कि अंसारी दर्पण का मुताला करू।
शुरुआत में तो जैसा किताब के नाम से जाहिर है वैसे मैंने सोचा था कि किताब में सिर्फ अंसारी समाज के रिश्ते नातों के बारे में ही लिखा होगा लेकिन जैसे ही किताब हाथ आई, मेरी ग़लत फहमी दूर हो गई। अंसारी दर्पण ना तो सिर्फ रिश्ते नातों की पत्रिका है और ना ही अंसारी समाज तक सीमित है, बल्कि ये पत्रिका तो हर समाज और हर तबके के लिए शानदार पत्रिका है। जैसा कि इस पत्रिका में लखनऊ सरजमीं से ताल्लुक रखने वाली डॉ नुसरत फातिमा ने बताया कि अंसारी दर्पण सियासी, समाजी और अदबी लोगों के साथ साथ तिजारती तबकों की भी नुमाइंदगी करती है। मैं उनकी बातों से पूरी तरह इत्तेफाक रखता हूं। नुसरत मैडम के अलावा पत्रिका में जिन शख्सियतों का जिक्र है उनमे से, मैं फखरून्निशा मैडम, फहीम सर, मौलाना नूरूल हसन रिजवी, इलियास नाज साहब, रियाज तारीकी साहब से पहले से और अच्छी तरह से वाकिफ़ हूं। फहीम सर तो मेरे उस्ताद भी रहे हैं। इस पत्रिका के जरिए से उस्ताद ए मोहतरम जनाब फहीम साहब की उर्दू पढ़ कर कल्ब को काफी सुकून मिला, उनको पढ़ते वक्त ऐसा महसूस हो रहा था कि पढ़ता ही जाऊँ। साथ ही रियाज़ भाई की दर्द भरी शायरी का मैं हमेशा क़ायल रहा हूं।
दर्पण में एक जगह लिखा है कि ‘तन्क़ीद के लिए इल्म का होना जरूरी है, जबकि नुक्ताचीनी के लिए जहालत ही काफी है।’ इतना शानदार जुमला पहली दफ़ा निगाह के सामने से गुजरा। हालांकि किताब में कई जुमले काफी सामान्य थे जो आए दिन सोशल मीडिया पर चलते रहते हैं। किताब में खानदान, घर परिवार, बिरादरी कैसी होनी चाहिए उनके हूक़ूक़ और जिम्मेदारियों पर शानदार तरीके से कलम चलाई गई है। जयपुर के मुहम्मद इदरीस साहब ने जिस तरह जवानी की दहलीज पर कदम रखने वाले युवाओं को नसीहत की है वह काफी सोचने लायक है। उन्होंने बड़ी ही बेबाकी से सच्चाई का अहसास कराते हुए लिखा है कि जवानी के दिनों में बहक जाने को लोग इश्क मोहब्बत का नाम दे देते हैं जो सिर्फ गलत फहमी से ज्यादा कुछ नहीं है।
पत्रिका में सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी का तारीखी वाक्या तो दिल दहला कर रख देता है, पढ़कर दिल में जो जोश पैदा हुआ उसे तफ़सील से बयान करने से कासिर हूँ। साथ ही रिहाना बानो की कोह ए आदम पढ़कर लगा कि अभी तक मैंने कुछ खास नहीं पढ़ा है क्योंकि इतना ग़ज़ब और तजस्सुस भरा वाक्या मैंने आजतक ना पढ़ा है और ना ही सुना है। इनके अलावा भी पत्रिका में कई तारीखी बाते शामिल हैं जो लोगों के इल्म मे इजाफा करती है और बीच बीच में नज्मों और ग़ज़लों का जो तड़का लगाया है वो काबिल ए तारीफ़ है। चूंकि मैं नज्म वाले हिस्से में ना तो ज्यादा दिलचस्पी रखता हूं और ना ही इल्म, इसलिए इस हिस्से के बारे में मजीद लिखना मेरे बस मे नही है। डॉ अजीजुल्लाह शिरानी साहब का काफी नाम सुन रखा है लेकिन उनसे कभी मुलाकात का सर्फ हासिल नहीं हुआ। इस पत्रिका के जरिये उन्हें भी पढ़ने का मौका मिला।
पत्रिका में महिला और पुरुष आइकॉन का हिस्सा भी काफी जबरदस्त तरीके से सजाया गया है, लेकिन इसका दायरा और वसीअ किया जा सकता था।
तास्सुरात वाले कॉलम में शेख मोहम्मद सिराज के कमेंट ने सम्पादक महोदय का ध्यान खिंचा हो या ना खिंचा हो लेकिन मैंने वक्त निकाल कर उनके काम के बारे में जानने का मन बना लिया है।
अब फिर से रिज़वानुद्दीन साहब पर आते हैं जिन्होंने पत्रिका में जहाँ जहाँ भी लिखा है लाजवाब लिखा है। उनकी आखिरी बात वाले कॉलम पर गौर ओ फिक्र कि जाए तो हमें, हमारी जिम्मेदारी का एहसास होता है। उन्होंने लिखा है कि पत्रिका में उर्दू के चंद सफहात शमिल करना शायद उर्दू के फरोग़ मे कुछ मदद कर सके, उन्होंने यह महसूस भी किया है कि ये बहुत बड़ा काम नहीं है फिर भी उर्दू के लिए उनका दर्द और कोशिश बेहतरीन है। रिज़वानुद्दीन साहब का बतख मिंया अंसारी वाला तारीखी किस्सा, ना सिर्फ लाजवाब है बल्कि हिन्दुस्तान की गुमशुदा तारीख पर एक उम्दा तंज भी है।
शरफ अंसारी का मज़मून ‘उर्दू की बक़ा में खवातीन का किरदार’ पर हमारे मआशरे के मर्द ओ औरतों को गहराई से सोचने पर मजबूर करता है । उर्दू से रिसर्च करने वालों की फेहरिस्त में मेरा नाम भी हो सकता था अगर कुछ सालो पहले मेरे साथ उर्दू वाले ही नाइंसाफी ना करते।
पत्रिका में इंजीनियर सिराज अहमद, जहूर अहमद, अब्दुल मजीद अंसारी, डॉ मोहम्मद मुस्तमिर और प्रोफेसर मुहीउद्दीन साहब के कॉलम भी पुरअसर अंदाज में छाप छोड़ने वाले हैं। अंसारी दर्पण की पब्लिशिंग , माशाल्लाह, बहुत खूबसूरत है। अगर इसका दायरा और वसीअ कर दिया जाए तो ये मजीद बेहतर पत्रिका साबित हो सकती है। आखिर में अंसारी दर्पण की तमाम टीम को इशाअत की मुबारकबाद पेश करते हुए अपनी बात खत्म करता हूँ।
– नासिर शाह (सूफ़ी)
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