बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, नारे की सार्थकता

Sufi Ki Kalam Se

सूफ़ी की कलम से… ✍️
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, नारे की सार्थकता

@साभार कांति


अगर इस नारे का विश्लेषण किया जाए तो पता चलता है कि जबसे ये नारा दिया गया है तबसे महिला उत्पीड़न के मामले घटने की जगह अत्यधिक रूप से बढ़े हैं। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ नारे को लिखित रूप से किताबों और फाइलों में तो मौखिक रूप से राजनीतिक एंव सार्वजनिक मंचों तक सीमित कहा जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
एक के बाद एक, और एक से बढ़कर एक दिल दहलाने वाले किस्से हमे देश के कोने कोने से आए दिन सुनने को मिलते हैं लेकिन समाज में इस तरह के मामलें इतने सामान्य हो चुके हैं कि लोगों को ये खबरें अब इतनी विचलित भी नहीं करती है।
एक तरफ कहा जाता है कि बेटियां बोझ नहीं है उन्हें पढ़ा लिखा कर योग्य बनाना चाहिए दूसरी तरफ उन्हें पढ़ाने लिखाने के ही सुरक्षित इंतजाम नहीं है। ऐसे में बेचारी बेटियाँ लड़े भी तो किस किस से? घर वालों की निम्न मानसिक स्थिति से लेकर अपने ही रिश्तेदारों, सगे संबंधियों एंव पड़ोसियों की वहशी नजरों से या स्कूल, कॉलेज एंव कोचिंग संस्थान के बुरी नजर वाले शिक्षकों एंव छात्रों से? अगर इन सब जगहों से सुरक्षित तरीके से ये लड़किया निकल भी जाती है तब भी इनकी परेशानियाँ खत्म नहीं होती और जहां काम करती है वहाँ भी कई तरह के उत्पीड़न से गुजरना पड़ता है।
जब हर जगह खतरा है तो फिर लड़कियों के रूढीवादी सोच वाले परिवार, क्यों अपनी निम्न मानसिक स्थिति को उच्चतम करने का खतरा मोल लेंगे? उन्हें भरोसा करने का कोई तो मजबूत सहारा मिलना चाहिए।
अखिर कब, ये नारे काल्पनिक वस्त्रों से निकल कर वास्तविकता का लबादा धारण करेंगे? जब तक समाज में बेटियाँ सुरक्षित नहीं रहेगी तब तक ना तो उनकी शिक्षा प्रतिशत में वृद्धि की उम्मीद की जा सकती है और ना ही बेटियों को लेकर प्राचीन विचारधारा वालों का हृदय परिवर्तन।
जब तक समाज में बेटियों की सुरक्षा की उचित व्यवस्था नहीं की जा सकती तब तक ना तो नारे की सार्थकता सिद्ध हो सकती है और ना ही रूढीवादी सोच मे बदलाव की कोई संभावना नजर आती दिखती है।

  • – नासिर शाह (सूफ़ी)

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