किताब – उसने गांधी को क्यों मारा
लेखक – अशोक कुमार पांडेय
प्रकाशक – राजकमल
समीक्षा—मोहम्मद तहसीन दिल्ली
महान लोग, महान पहचान, महान काम, महान अंत महात्मा गांधी के लिये बिल्कुल सटीक उदाहरण बैठता है।
महात्मा गांधी बस एक नाम भर नहीं है महात्मा गांधी एक सदी है जिसका अंत कभी नहीं हो सकता। महात्मा गांधी उस दौर से है जब
विश्व भर में विश्वयुद्ध छिड़ा था । इससे अछूता भारत भी नही था। उस समय भारत बिर्टिश साम्राज्य के अंतर्गत था। ऐसे समय मे गांधी ने आजादी के लिये सत्य और आहिंसा का प्रयोग किया। जो अपने आप मे एक हैरान करने वाला था।
गांधी के ऊपर बहुत लिखा जा चुका बहुत लिखा जा रहा है और बहुत लिखना बाकी भी है। बाईबल के बाद सबसे अधिक गांधी के ऊपर ही लिखा गया है। उनके ऊपर हर पंथ और विचारधाराओ ने कलम चलाई है
कुछ नरम कुछ गरम।
सन 30 जनवरी 1948 को गांधी की हत्या कर दी जाती है। गांधी की हत्या क्यों कि जाती, आखिर गांधी की हत्या की वजह क्या थीं इन सारे सवालों के जबाब जानने के लिये ये किताब पढ़ते है।
इस किताब में गांधी के ऊपर जो आरोप लगाये गये थे उनकी भी पड़ताल की गयी है।
1 पाकिस्तान को पचपन करोड़ देने के लिये अनशन।
2 दो देश के बंटबारे के दोषी ।
3 भगतसिंह की फांसी रोकने की कोशिश नहीं कि ।
1 उनके ऊपर पहला आरोप ये लगाया गया कि उन्होंने पाकिस्तान को पचपन करोड़ देने के लिये अनशन किया। जबकि ऐसा बिल्कुल नही था।
असल बात ये थी कि बंटबारे के पश्चात दोनों तरफ भीषण दंगे हो गये, पाकिस्तान में हिन्दू और सिख मारे जा रहे थे, जबकि भारत मे मुस्लिम। ये सब देख देख गांधी परेशान होते है। इसी वजह से उन्होंने दंगे रोकने के लिये 12 जनवरी मौन व्रत रख लिया उससे पहले ही अपनी माँगे लिख भेजी । उस माँग में कही भी पचपन करोड़ का जिक्र नही था । उसके बाद उन्होंने अपने बेटे देवदास गांधी को पत्र लिखा उस पत्र में भी कही कोई पचपन करोड़ राशि का जिक्र नही था ।
यहाँ तक कि 14 तारीख को प्राथना सभा में भी गांधी ने इसका जिक्र नही किया।
फिर 15 जनवरी को कैबिनेट की मीटिंग में माना गया कि पैसा रोकना सही नहीं होगा जो पाकिस्तान का हक है वो उन्हें मिलना चाहिए। इसमें सभी की राय थी पंडित नेहरू श्यामाप्रसाद मुखर्जी और बल्लभ भाई पटेल । पटेल थोड़े नाराज थे पाकिस्तान को पैसे देने के मामले में लेकिन मौका की नजाकत को समझा और हामी भर दी । इधर बताता चलूँ की इन सब में गांधी का कोई योगदान नही था ये सब कांग्रेस की मीटिंग में हुआ पकिस्तान को पचपन करोड़ देने का फैसला। इन सभी नेताओं की सर्वसम्मति से लिया गया। इसमें कही भी गांधी का योगदान नहीं था।
2 दूसरा आरोप ये लगाया गया कि गांधी विभाजन के दोषी थे-
इस समय का जनसंघ और हिंदुत्व और गैर हिंदु विचार वाले उसके पुरखे जिन्होंने सबसे ऊँची आवाज में अखंड भारत का नारा लगाया, उन्होंने अंग्रेजो और मुस्लिमलीग कि देश विभाजन में मदद की। उन्होंने देश के भीतर मुस्लिम और हिन्दुओ को करीब लाने की कोशिश नहीं कि , उल्टा उन्होंने हमेशा दोनों में अलगाव कराने की स्थिति बनाई। यही अलगाव की स्थिति बंटबारे का मूल कारण है। एक तरफ आप अलगाव की स्थिति बनाना दूसरी तरफ अखंड भारत की बात करना खुद को धोखा देने के समान है। भारत मे मुस्लिमों के दुश्मन पाकिस्तान के दोस्त जनसंघी और अखंड भारत का नारा देने वाले है। ये सभी पाकिस्तान के दोस्त है । _
राममनोहर
लोहिया
विभाजन का मूल कारण सन 1857 के जनविद्रोह से जुड़े है। जब सन 57 में हिन्दू मुस्लिम ने मिलजुल कर अंग्रेजो के खिलाफ बगावत कर दी.
उस समय ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकार था इस बगावत से ईस्ट इंडिया कंपनी हत्थे से उखड़ गयी,
अब सम्पूर्ण भारत महारानी के हाथों था।
हिन्दू मुस्लिम की इस एकता को देख अंग्रेज़ समझ चुकें थे.अब एक और बगावत भारत से बिर्टिश हुकूमत की पकड़ छूट जायेगी, इसलिए उन्होंने (डिवाइड एंड रूल) बांटो और राज करो कि राजनीति खेली, जिसमें हिन्दू मुस्लिम भोली भाली जनता फस चुकी थीं।
बांटो और राज करो कि नीति में अंग्रेजो का साथ हिन्दू और मुस्लिम के संप्रदायिक संघटनों ने दिया। सन 1888 इसकी काट के लिये काँग्रेस का गठन किया गया। काँग्रेस की नीति, धर्मनिरपेक्ष थी, वो सभी वर्गों को समान रूप से लेकर चलती थीं, लेकिन दूसरी तरफ हिन्दू महासभा आरएसएस और मुस्लिम लीग ये संघटन सिर्फ धार्मिक हितों के लिये ही हमेशा आगें आये।
सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन अपने चरम में था तब ये संगठनों ने उस आंदोलन का बहिष्कार किया लोगो को उसमें जुड़ने से रोका। सयोग की बात है उस समय हिन्दू महासभा और मुस्लिमलीग मिलकर सिंध और बंगाल में गठबंधन की सरकार चला रहे थे ।
उस समय सिंध की सरकार ने पाकिस्तान का प्रस्ताव असेम्बली में लाये। , तब हिन्दू महासभा ने उस प्रस्ताव का समर्थन किया था। हमेशा इन दोनों संघठनों ने गांधी का बिरोध किया, ना कभी सावरकर के चाहने वाले ने जिन्ना को मारने की कोशिश की ना जिन्ना को चाहने वाले ने सावरकर को खरोच भी पहुचाई।
गांधी ने हिन्दू मुस्लिमों में पड़ी दरार को भरने की पूरी कोशिश की। दिल्ली में उनके लिये चिंता का कारण अल्पसंख्यक मुस्लिम थे,जबकि नोआखली में हिन्दू ।
असल विभाजन के जिम्मेदार वो लोग थे जो मुस्लिमो के लिये, निजाम ए मुस्तफा का सपना दिखा रहे थे, दूसरी तरफ हिंदुओं को हिन्दू राष्ट्र का अब कोई भी मुसलमान हिन्दू राष्ट्र की अवधरणा के साथ अल्पसंख्यक रहते हुए कैसे खड़ा हो सकता है, जहा उसके साथ दोयम दर्जे का बर्ताव किया जाये।
गांधी इस कदर बंटबारे के खिलाफ थे, उन्होंने अंत तक हार नहीं मानी थी, लेकिन वो कहते है ना लोग पराये से लड़ सकतें है अपनों से नहीं, आखिर में उन्हें समझ मे आ गया कि दोनों कौमों को इस कदर धार्मिक आधार पे बाँट दिया गया जहाँ से इन्हें बापस एक करना असंभव था। आखिरकार उन्होंने भारी मन से बंटवारे को हामी भरनी पड़ी।
3 तीसरा आरोप गांधी ने भगतसिंह को बचाया नहीं गांधी चाहते तो बचा सकतें थे
पहली बात ये समझिये भगतसिंह और उनके साथियों को फाँसी की सजा असेम्बली में बम फेंकने से नहीं हुई थीं, उनको फाँसी की सजा सांडर्स की हत्या करने के लिये हुई थी अगर फाँसी बम फेंकने से होती तो बटुकेश्वर दत्त को भी फाँसी होती। उम्र कैद नही होतीं।
बम फेंकने के बाद भगतसिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त उधर से भागें नहीं, वही मजबूत होकर बिरोध करते हुए अपनी गिरफ्तारी दी. गिरफ्तार होने के पश्चात भगतसिंह ने कोई बकील नही लिया बस एक कानूनी सलाहकार की मदद लेकर खुद अपना केस लड़ा।
जबकि बटुकेश्वर का केस प्रसिद्ध राष्ट्रवादी कांग्रेसी नेता आसफ अली ने लड़ा।
हफ्ते भर के अंदर इस केस का फैसला आ गया था दोनों क्रांतिकारी को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी, भगतसिंह को मियां वाली जबकि बटुकेश्वर को लाहौर जेल भेजा गया
इसी बीच भगतसिंह के दो साथी हंसराज बोहरा, और जयगोपाल ने सांडर्स हत्याकांड में भगतसिंह और उनके साथियों के खिलाफ गवाही दे दी ।
भगतसिंह,बटुकेश्वर दत्त,शिव वर्मा,अजोय घोष,जतिन दास, प्रेम दत्त, इन सभी पे मुकदमा चला। जेल के भीतर भगतसिंह और उनके साथियों ने बेहतर सुविधा के लिये गांधीवादी तरीकों से लंबी भूख हड़ताल की ।
स्वतंत्रसेनानी मोतीलाल नेहरू ने इन युवकों का समर्थंक किया था, अनशन के दौरान नेहरू और कुछ कांग्रेसी नेता भगतसिंह से मिले और एक बयान जारी किया—-
इन नायकों की हालत देखकर मैं बहुत विचलित हूँ, संघर्षो में उन्होंने अपना जीवन दांव पे लगा दिया है। वे चाहते है उनके साथ राजनीतिक कैदियों के तरह व्यहवार किया जाये। मुझें भरोसा है उनके त्याग को मंजिल जरूर मिलेंगी। —-पंडित नेहरू।
उस समय जिन्ना ने सेंट्रल असेम्बली में भगतसिंह का मुद्दा उठाया और कहा, उन्हें भोजन और व्यहवार के मामले में यूरोपियों से निर्धारित स्तर से भी कम से कम सुविधा मिल रहीं है,,,हैरानी की बात ये है कि इस समय तक जिन्ना सेक्युलर नेता थे।
63 दिन की भुख हड़ताल के बाद जतिन दास भूख की बलि चढ़ गये और शहीद हो गये, उनका पार्थिव शरीर सुभाषचन्द्र बोस कलकत्ता लायें जतिनदास की आखरी इच्छा थी की, उनका अंतिम संस्कार रूढ़िवादी की तरह नही किया जाये, उस समय बंगाल में हर गली नुक्कड़ पे पोस्टर चिपकाये गये जिसपे लिखा था—– मेरा बेटा जतिनदास जैसा हो । इस घटनाक्रम से पूरा देश शोक में डूबा हुआ था जगह जगह कांग्रेसी नेता बिरोधस्वरूप अपना इस्तीफा दे रहे थे।
लाहौर केस में भगतसिंह और उनके साथियों की पैरवी कांग्रेसी नेता गोपीचंद भार्गव कर रहे थे जो आगे चलकर पंजाब के मुख्यमंत्री बने । और भी कांग्रेसी लीडर भगतसिंह के पक्ष में दलीलें रख रहे थे।
लेकिन तमाम दलीलों के बाबजूद सरकार बस किसी तरह भगतसिंह और उनके साथियों को फाँसी के तख्ते पे झूलते हुए देखना चाहती थी सरकार तो सभी तरह के संवैधानिक मूल्यों का मजाक उड़ाकर एकतरफा मुकदमा चलाया, दूसरी तरह क्रांतिकारी को हर हाल में जनता का प्यार मिल रहा था,सुभाषचन्द्रबोस,मोतीलाल नेहरू,रफी अहमद किदवई, और राजा कालाकांकर उनसे मिलने आये।
जल्दी फैसले के लिये अंततः मुकदमा जस्टिस शादी लाल की अदालत से लेकर एक ट्रिब्यूनल को सौंप दिया गया, जिसे असीमित अधिकार दिये गये थे, जिनके फैसले के ऊपर चुनौती नहीं दी जा सकती थी, भगतसिंह ने इस अदालत को ढकोसला कहा और ट्रिब्यूनल द्वारा सरकारी ख़र्चे पर किये वकील की मांग ठुकरा दी क्रांतिकारियों ने अदालत में इंकलाब जिंदाबाद और साम्राज्य मुर्दाबाद नारा लगाते रहे, मुकदमें में बाधा डालते रहे ,,,ट्रिब्यूनल ने उसके बाद सारा मुकदमा क्रांतिकारी के अनुपस्थिति में किया गया ।
7 अक्टूबर 1930 को इस ट्रिब्यूनल ने भगतसिंह, राजगुरु,और सुखदेव को फाँसी की सजा मुकर्रर की, जबकि बाकी के क्रांतिकारी किशोरीलाल,महावीर सिंह, विजय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा, गया प्रसाद, जयदेव, कमलनाथ तिवारी को कालापानी,कुन्दनलाल को सात साल और प्रेमदत्त को पांच साल की सजा मुकर्रर की।
क्या गांधी भगतसिंह को बचा सकतें थे
पहले एक बात मानिये क्या सच मे गांधी इतने ताकतवर थे,कि अंग्रेजो के ऊपर दबाब डलवाकर कोई भी अपना मनवाना काम करवा लेते इसका जबाब है बिल्कुल नहीं गांधी की बात सुनी जरूर जाती थी, लेकिन मानी कभी नहीं जाती थी. कुछ ऐसा ही भगतसिंह और उनके साथियों के केस में भी हुआ।
गांधी और इरविन समझौता
कहा जाता है, गांधी इरविन समझौते में भगत और उनके साथी की रिहाई की मांग रख सकतें थे,लेकिन दूसरे नजरिये देखियेगा तो पता चलेगा कि अगर गांधी कुछ ऐसी शर्त रखतें तो समझौता वही ध्वस्त हो जाता है, मसलन -गांधी ने समझौते में एक शर्त जोड़नी चाही की असहयोग आंदोलन में कांग्रेस कार्यकर्ता और आम नागरिकों पे जो पुलिसिया बर्बरता हुई थी उसमें पुलिस की भूमिका के लिये जाँच कमीशन बिठानी थी।
लेकिन इरविन नहीं माने गांधी को शर्त बापस लेनी पड़ी। कारण ये था कि – अगर ऐसी कमीशन बैठी तो बम्बई की गवर्नर सर फेड्रिक साइक्स ने धमकी दी अगर कमेटी बैठी मेरे साथ साथ सात और बिर्टिश गवर्नर इस्तीफा दे देंगे।
गांधी जी इरविन से अलग से लगातर बात कर रहे थे, लेकिन दूसरी तरफ बम्बई के गवर्नर लगातर इस्तीफे की धमकियां दे रहे थे उस समय लंदन के एक बरिष्ठ पत्रकार और इरविन एक करीबी लिखतें है- अगर इरविन भगतसिंह की फाँसी की सजा माफ कर देते है तो संभव है कि पंजाब का हर एक पुलिस प्रमुख इस्तीफा दे दे।
22 मार्च 1931 ‘द पीपल ‘ ने लिखा लगातर पंजाब के बड़े अधिकारी इरविन पे दबाब डाल रहे है कि भगतसिंह की फाँसी नही रुकनी चाहिए। गांधी पहले ही अन्य सत्यग्रही को रिहा करके बिर्टिश साम्राज्य की नाराजगी झेल चुकें थे।
लेकिन गांधी अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे थे
18 फरबरी को उन्होंने इरविन से कहा- मैं पूरी तौर पे सहमत हूँ उनके विचार सही नहीं है, लेकिन भगतसिंह बिना शक के एक बहादुर आदमी है, लेकिन सजा ए मौत की बुराई ये है कि वो उस व्यक्ति को सुधरने का मौका नहीं देती। मैं आपके सामने ये पक्ष मानवीय आधार पे रख रहा हूँ, मेरी इच्छा है कि उनकी फाँसी की सजा टाल दी जाये नहीं तो देश मे उधल-पुथल हो सकता है, मैं आपकी जगह होता तो रिहा कर देता लेकिन सरकार से ऐसी उम्मीद नहीं कि जा सकती है।
इसके बाद भी गांधी लगातर कोशिश करते रहे
इरविन ने अपने संस्मरण में कहा-गांधी को डर है अगर भगतसिंह की फाँसी नहीं रोकी गयी, तो समझौता टूट सकता है, मैंने कहा इसका दुख मुझे भी है , लेकिन मेरे हाथ मे अब कुछ नहीं है ,,,
जबसे भगतसिंह का नाम किसी की हत्या में आया तबसे गांधी को कांग्रेस से बाहर किसी का समर्थन नहीं मिला यहां तक कि जिन्ना जो भगतसिंह की सुख सुविधा के लिये समर्थन किया था, हत्या में नाम आने के बाद जिन्ना चुप्पी साध गये, जलियांवाला बाग हत्याकांड होने के बाद नाईटहुड की उपाधि लौटने वाले टैगोर भी खामोश हो गए थे, भगतसिंह की मौत के बाद पेरियार ने एक लेख जरूर लिखा था लेकिन अंबेडकर चुप रहे
इस समय तक मोतीलाल नेहरू की मृतयु को चुकी थी।
लेकिन गांधी अपनी तरफ से लगातार कोशिश कर रहे थे 23 मार्च को उन्होंने अंतिम खत लिखा—आम राय सही हो या गलत लेकिन फाँसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील कीजिये अगर उन्हें उम्रकैद होती है तब शांति स्थापित की जा सकती है नहीं तो उन्हें फाँसी हुई तो शांति जरूर खतरे में पड़ेगी। आपको मैं सूचित कर रहा हूँ क्रांतिकारी पार्टी ने मुझें आश्वासन दिया, की उन्हें छोड़ दिया जाये तो वह हिंसा का रास्ता छोड़ देंगे। अगर आपको लगता है निर्णय में जरा भी खामी है तो फिलहाल के लिये इसे टाल दीजिये ताकि इसकी समीक्षा की जा सकें ।
दया कभी बेकार नही जाती।।।।।
लेकिन अंग्रेज़ी हुकूमत तय कर चुकी थी जिस समय गांधी ये खत लिख रहे थे उस समय तीनों क्रांतिकारी हँसते-हँसते फाँसी का फंदा चूम लिया और सदा के लिये अमर हो गये।
भगतसिंह के साथी रहे चमनलाल जिन्होंने गांधी का अपमान किया था और जब गांधी उन्हें मुस्कुरा के सुनते रहे
चमनलाल कहते है-गांधी ने मुझसे कहा मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की इरविन पंजाब में पड़ने वाले दबाब के कारण मजबूर थे आगें कहते है कि अंत मे सभी जान ले फाँसी में चढ़ाने वाले गांधी नहीं उनके संघठन के कुछ गद्दार थे जिन्होंने बिर्टिश के आगें अपना समर्पण किया ।
इस समय तक सावरकर ने कोई कोशिश नहीं कि श्यामाप्रसाद मुखर्जी, गोवलकर,हेडगेवार,केतकर मुंजे जैसे तमाम नेता चुप थे उन्होंने एक बयान तक नहीं जारी किया। आखिर क्या वजह थीं।
गांधी की हत्या की वजह आखिर क्या थी
जिस वक्त गांधी देश मे फैली साम्प्रदायिक हिंसा रोकने के लिये लगातर भाग दौड़ कर रहे थे, उस समय विभाजन का फैसला हो चुका था, उत्तर भारत मे साम्प्रदायिक ताकते पूरी तरह से हावी हो चुकी थी
अपना देश दो हिस्से में बट रहा था छोटा हिस्सा देश के मुस्लिम के कहे जाने वाले हिमायती मुस्लिमलीग के पक्ष में जायेगा दूसरा बड़ा हिस्सा कांग्रेस सेक्युलर और बाकी के दल के अंदर आएगा।
इधर सावरकर की सबसे बड़ी हार हुई थी, सावरकर जो खुद हिन्दू राष्ट्र देश के प्रधानमंत्री बनना चाहते थे लेकिन लोगों ने काँग्रेस को सर आँखों पे बिठाया, लेकिन काफी हद कुछ लोगो के मन मे बात बैठा दी गयी थी,
गांधी हिन्दू राष्ट्र के रास्ते मे सबसे बड़ा रोड़ा है जब तक गांधी जीवित है देश हिन्दू राष्ट्र नहीं हो सकता। सबसे बड़ी खामी ये थी की हिन्दू राष्ट्र के समर्थंक हर जगह थे कुछ कांग्रेस के बाहर कुछ अंदर।
नाथूराम गोडसे ने गोली जरूर चलाई, लेकिन वो रिवॉल्वर चलाने की हिम्मत किसने दी, आखिर क्या वजह थी नाथूराम ने आजादी के आंदोलन में भाग नही लिया। कभी जेल नही गये कभी किसी क्रांतिकारी के लिये आवाज बुलंद नहीं कि , कभी किसी अंग्रेज़ के ऊपर एक कंकर तक नही मारा, गोली मारी भी किसको महात्मा गांधी को। असल बात ये है कि नाथूराम बस एक मात्र मोहरा था असली खिलाड़ी कोई और था।
सन 1948 तारीख 30 जनवरी गांधी की हत्या दिनदहाड़े कर दी जाती है लेकिन इससे पहले भी गांधी की हत्या की कई बार कोशिश होती है
20 जनवरी तक गांधी बहुत कमजोर हो चुके थे, लेकिन हिन्दू मुस्लिम की आपसी रंजिश को खत्म करने के लिये अनशन पे बैठे थे उनके मुँह से शब्द तक नही निकल रहे थे, जो निकल रहे थे उनमें इतनी ताकत नहीं थी कि कोई दूसरा उन्हें सुन पाये गांधी जी का भाषण डॉ सुशीला नायर सुना रही थी। ठीक उस समय एक जोर का धमाका हुआ, लेकिन गांधी ने सभी को हाथ के इशारे से समझा कर बिठा दिया। हत्यारे यही चाहते थे कि अफरा-तफरी का मौहाल बने मौका देखकर गांधी की हत्या की जा सके लेकिन गांधी ने भीड़ को हताहत होने से बचाया और हत्यारों को खाली हाथ बापस लौटना पड़ा।
इस धमाके के बाद पुलिस प्रशासन को सख्त हो जाना चाहिए था लेकिन उन्होंने इसको गम्भीर नहीं लिया इसका खामियाजा ठीक दस दिन बाद 30 जनवरी को महात्मा की हत्या होकर चुकता हुआ। दोषी पकड़े गये उन्हें उनकी किये की सजा भी मिली
गांधी हत्याकांड में सावरकर की भूमिका-
लाल किले के फैसले में पाया गया कि सावरकर को दोषी ठहराना सुरक्षित नहीं होगा, कपूर आयोग की रिपोर्ट पढ़ते हुए लगता है सरकारी गवाह दिगम्बर भगडे के पास ठोस सबूत मौजूद थे ये बताने के लिए गांधी हत्याकांड से पहले आप्टे और गोडसे सावरकर मिले थे,लेकिन चौकाने वाले तथ्य ये है कि इतने मजबूत सबूत अदालत में पेश ही नही किया गया। सावरकर संदिग्ध जरूर था, लेकिन मुलजिम नहीं।
गोडसे, आप्टे और अन्य आरोपियों ने सावरकर को बचाने की पूरी कोशिश की । काफी हद कामयाब रहे।
लेकिन सावरकर की मृत्यु के पश्चात आई एक रिपोर्ट के अनुसार 31 जनवरी को 1948 को एन.वी लिमये नामक व्यक्ति ने बताया अगर नाथूराम गोडसे गांधी का हत्यारा है तो सावरकर के सचिव जी.वी दामले और अंगरक्षक ए. आर कासर को निश्चित ही इस षड्यंत्र की खबर होंगी।
4 मार्च 1948 को सावरकर के अंगरक्षक कासर ने पुलिस को बताया-नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे सावरकर से मिलने आया करते थे विभाजन के दौर में गांधी और कांग्रेस के खिलाफ प्रोपेगैंडा चलाने की सलाह भी दी थी सावरकर ने।
23 और 24 मार्च के मध्य मे सावरकर के सचिव विष्णु दामले ने पुलिस को बताया-आप्टे करीब करीब रोज ही सावरकर से मिलने आता था, कभी कभी गोडसे भी साथ आता था, जब दोनों ने एक नया अखबार शुरू किया तो सावरकर ने पंद्रह हजार रुपये देकर मदद की थी। विष्णु करकरे हिन्दू महासभा का कार्यकर्ता था।
सभी गवाह को एक जगह इकट्ठा करके देखा जाये तो सावरकर की भूमिका गांधी हत्याकांड में बहुत बड़ी थी। इतने गवाह के बदौलत सावरकर आराम से जेल की हवा खा सकतें थे। लेकिन सावरकर का कद उस समय बहुत ऊंचा था, दूसरी तरह सावरकर उग्र हिन्दू राष्ट्रवादियों के लिये ब्रांडअम्बेसडर थे। कांग्रेस के बड़े लीडर मानते थे अगर सावरकर के ऊपर मुकदमा चलता तो शायद हिंसा बहुत हद तक बढ़ जाती।
लेखक के बारे – किताब किसी जासूसी भाषा शैली की तरह लिखी गयी है, एक दम रोमांच से भरपूर कई बार लगता है अब होगा कुछ, अब हुआ शब्दों के बयान बहुत तीखे चले है, यहां तक कि अंत तक आते आते लेखक बहुत अग्रेसिव हो चुके है। जो ठीक भी लगता है कई जगह बहुत सुंदर तरीके से वर्णन किया गया जो अपने आप मे बहुत शानदार है,। किताब बिल्कुल भी बोझिल नहीं करती । एक बार शुरू कीजिये खत्म करके दम लीजिएगा। इसमें सिर्फ गांधी हत्याकांड के दोषियों का पर्दाफाश ही नही, गांधी के ऊपर जो जो इलजाम लगाये गए है, उनके तह तक जाकर बारीकी से पड़ताल भी किया गया है, कुछ ऐसी जानकारी प्राप्त हुई है जो आज से पहले शायद ही किसी किताब में पढ़ी हो एक बिंदु को खुलकर और आसान तरीके से समझाया है किताब इतनी बारीकी से लिखी गयी है। महीन लिखी गयी है। जो समझने और सोचने के लिये बहुत पर्याप्त है। ऐसी किताब पहले बिल्कुल तह तक गयी हुई शायद ही लिखी गयी हो। और हां किताब कही से पढ़ सकतें है। जो-जो महात्मा गांधी के खिलाफ दुष्प्रचार फैला हुआ है। वो ये किताब बहुत जबदस्त हथियार के रूप में है। जो आपको बहुत मदद करेंगी।
लेखक को शुभकामनाएं किताब के लिये।
गेस्ट ब्लॉगर मोहम्मद तहसीन दिल्ली
20 thoughts on ““उसने गांधी को क्यों मारा’ पुस्तक समीक्षा (गेस्ट ब्लॉगर मोहम्मद तहसीन)”
Comments are closed.