इस्लाम छोड़कर हिंदू क्यों बने वसीम रिज़वी? जानिए राजीव शर्मा की जुबानी…

Sufi Ki Kalam Se

इस्लाम छोड़कर हिंदू क्यों बने वसीम रिज़वी? जानिए राजीव शर्मा की जुबानी…

चूंकि वसीम रिजवी राजनीति से जुड़े व्यक्ति हैं, इसलिए लोगों के मन में एक बिंदु यह भी है कि संभवत: उन्होंने भविष्य को ध्यान में रखते हुए यह फैसला किया है। हालांकि वास्तविकता क्या है, मुझे नहीं मालूम। कौन किस धर्म को मानता है, किसे त्यागता है, कौन स्वर्ग में जाता है या नरक में पड़ता है – यह हमारे हाथ में नहीं है। यह तय करने की शक्ति हममें नहीं है।

गेस्ट ब्लॉगर राजीव शर्मा

तब मैं तीसरी या चौथी कक्षा का विद्यार्थी था। मैं फरीदाबाद के एक स्कूल में पढ़ता था। हम किराए के मकान में रहते थे। वहां एक बुजुर्ग ट्यूशन पढ़ाया करते थे। मैं भी उनके पास पढ़ने जाता था। गर्मियों में पढ़ाई उनके घर में होती थी। सर्दियां आतीं तो पड़ोस में ही एक मकान की छत पर कक्षा लगती थी।

वहां एक सज्जन रहा करते थे। अब नाम आदि तो याद नहीं, उनकी भाषा से लगता था कि वे बंगाली रहे होंगे। स्वभाव के बहुत अच्छे, मिलनसार थे। हमें कहानियां सुनाया करते थे। जब फुर्सत होती तो रेडियो पर पुराने गाने सुनते थे।

उन्हें नए गाने खास पसंद नहीं थे। दर्दभरे नगमे सुनते रहते थे, जिससे ऐसा लगता था कि जरूर किसी ने उनका दिल तोड़ा होगा। उनकी बातों से ऐसा मालूम होता कि उन्हें बहुत ज्ञान था। पास ही किसी कारखाने में काम करते थे।

वे शनिवार के दिन ट्यूशन पढ़ने वाले बच्चों को चॉकलेट खिलाते थे। दुकान से चॉकलेट लाने का जिम्मा मेरा था। वे रुपए देते। मैं दौड़ता हुआ दुकान तक जाता, दौड़ता हुआ ही वापस आता। अंकल को सिर्फ एक चीज से चिढ़ थी। उन्हें धर्म-कर्म का दिखावा करने वाले लोग पसंद नहीं थे। अक्सर वे उनकी निंदा करते रहते थे। वे गरीबी और धर्म से जोड़कर देखते थे।

एक दिन उन्होंने मुझे चॉकलेट लाने के लिए रुपए दिए। मैं जहां से खरीदकर लाता था, वह दुकान बंद थी। इसलिए दूसरी दुकान पर चला गया। जब आने में कुछ देरी हुई तो उन्होंने वजह पूछी। मैंने बता दिया कि दूसरी दुकान पर गया था।

यह सुनना था कि उनके चेहरे का रंग बदल गया। फिर कुछ सामान्य हुए तो बोले, ‘वहां से मत लाया करो। वह अच्छा आदमी नहीं है।’ चूंकि हमें तो चॉकलेट खाने से मतलब था। इसलिए मैंने भी कह दिया कि ‘ठीक है, वहां से नहीं लाऊंगा।’ बात आई-गई हो गई।

बाद में मुझे पता चला कि वे अंकल को ऐसे लोगों से कुछ ज्यादा ही चिढ़ थी जो पहनावे या पहचान से खुद को अत्यंत धार्मिक दिखाते थे। शायद उनका झुकाव वामपंथी विचारधारा की ओर था। इसलिए जो कोई तिलक लगाता या दाढ़ी रखता (जैसा कि लोग धार्मिक परंपराओं में रखते हैं), तो वे उसकी दुकान से एक रुपए की चीज भी नहीं खरीदते थे।

शायद उनके अनुभव कुछ ऐसे रहे होंगे कि उन्हें हर ऐसे व्यक्ति से घृणा हो गई जो धार्मिकता के चिह्न धारण करता था। मैं अंदाजा ही लगा सकता हूं कि उन्होंने ऐसे लोग देखे हों जो ऊपर से धार्मिक नजर आए लेकिन सामान में मिलावट, बेईमानी करते हों।

उन अंकल ने धर्म और उसके अनुयायियों को एक ही समझ लिया। संभवत: उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला होगा जो इन दोनों का अंतर ठीक-ठीक समझा पाता। उनकी पत्नी कभी-कभार हमें कहती थीं कि अपने अंकलजी की बातों को ज्यादा गंभीरता से मत लेना।
मुझे नहीं मालूम कि आज वे सज्जन कहां हैं और अब उनके विचार क्या हैं। ज्यादा संभावना इस बात की है कि वे बिल्कुल नहीं बदले होंगे।

पता नहीं क्यों, मैंने जब भी किसी डिबेट में वसीम रिजवी को देखा तो उन्हीं अंकल की झलक दिखाई दी। उन्हें जवाब देने के लिए जिन लोगों को बुलाया जाता, वे ठीक तरह से जवाब नहीं दे पाते। यह भी देखने में आया कि वसीम रिजवी कहीं क्रोधित हो जाते तो वे भी उसी तरह पेश आते। कुल मिलाकर बात यह है कि सवाल-जवाब कम होते, झगड़े ज्यादा होते। ऐसे मामलों में किसी को उसी की ‘भाषा’ में जवाब नहीं दिया जाना चाहिए।
मैंने सोशल मीडिया पर वसीम रिजवी को गाली-गलौज और ‘सर तन से जुदा’ की धमकियां देखी हैं। ये गालियां पढ़कर लग ही नहीं रहा था कि उन लोगों ने क़ुरआन, हदीस को ठीक-ठीक समझा होगा। बल्कि उससे वसीम रिजवी की ही दलील अधिक मजबूत होती है कि देखो, ‘इनके’ बारे में जो कहता हूं, ये खुद ही उसे सच साबित कर रहे हैं।
चूंकि वसीम रिजवी राजनीति से जुड़े व्यक्ति हैं, इसलिए लोगों के मन में एक बिंदु यह भी है कि संभवत: उन्होंने भविष्य को ध्यान में रखते हुए यह फैसला किया है। हालांकि वास्तविकता क्या है, मुझे नहीं मालूम। कौन किस धर्म को मानता है, किसे त्यागता है, कौन स्वर्ग में जाता है या नरक में पड़ता है – यह हमारे हाथ में नहीं है। यह तय करने की शक्ति हममें नहीं है।

वसीम रिजवी की बातों से एक चीज का आभास तो होता है कि उन्होंने किताबें काफी पढ़ी होंगी। हिंदू धर्म अपनाने के पीछे उनकी सोच क्या रही, यह वही जानें। मैं सिर्फ कुछ अंदाजा लगा सकता हूं। हो सकता है कि मैं ग़लत हूं।
भले ही हिंदू समुदाय में कई कुरीतियां रही होंगी और आज भी हैं लेकिन इसके धर्म की एक खासियत है जो इसे अन्य से अलग बनाती है। हिंदुओं में विद्वान हुए हैं तो सुधारक भी बहुत हुए हैं। हममें सती प्रथा, बाल विवाह, छुआछूत और कई खराबियां थीं लेकिन राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, स्वामी विवेकानंद और डॉ. अंबेडकर जैसे सुधारक हममें ही पैदा हुए और उन्होंने ये बुराइयां खत्म कर दीं।

खासतौर से डॉ. अंबेडकर का जिक्र करना चाहूंगा। उन्होंने जीवन के आखिर में हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लिया था। आज हिंदू उन्हें बहुत आदर से याद करते हैं। मैं ब्राह्मण हूं और जानता हूं कि तत्कालीन पंडितों से अंबेडकर का कितना वैचारिक संघर्ष था। आज मैं स्वीकार करता हूं कि मेरे लिए अंबेडकर ज्यादा आदरणीय हैं। इतना सम्मान किसी अन्य समुदाय में उस व्यक्ति को मिलना दुर्लभ या असंभव ही है जो उसकी कुरीतियों से लड़ता रहे और एक दिन उसे छोड़कर चला जाए। हिंदू समाज में सुधार के प्रति तुलनात्मक रूप से अधिक स्वीकार्यता है।

मैं मेरा ही उदाहरण देता हूं। पिछले करीब एक दशक से कई कुरीतियों का विरोध कर रहा हूं। शुरुआत में लोग मुझ पर हंसते थे। आज वे मानते हैं कि मैं उनके भले की बात कह रहा हूं। जो लोग मुझसे उम्र में 40-50 साल बड़े हैं, उन्होंने मेरे सामने माना है कि मैं सही काम कर रहा हूं और इससे आने वाली पीढ़ी का भला होगा।

आज अगर मैं मेरे खानदान के सामने यह ऐलान कर दूं कि कोई ईश्वर नहीं है, मैं ईश्वर में विश्वास नहीं करता … तो वे यही कहेंगे कि ‘ठीक है, मत करो लेकिन खुद तलाश करो कि ईश्वर नहीं है तो क्यों नहीं है!’ ज्यादा से ज्यादा यह होगा कि उनमें से कोई मुझे ग्रंथ लाकर दे देगा। इससे ज्यादा कुछ नहीं होगा, मैं 100 प्रतिशत विश्वास के साथ कह सकता हूं।

मेरे मां-बाप को दुख तो होगा लेकिन वे मेरे लिए ईश्वर से प्रार्थना करेंगे। इससे ज्यादा कुछ नहीं करेंगे। मैं पहले नास्तिक रहा भी हूं। फिर एक लंबे मानसिक संघर्ष के बाद पाया कि ईश्वर है। इसमें कोई संदेह नहीं है। मुझे हिंदू धर्म और इसकी सामाजिक व्यवस्था सत्य को खोजने, अपनी बात आज़ादी से रखने का अवसर देती हैं। इसीलिए मैं खुद को ‘सत्यान्वेषी’ कहता हूं। वैसे यह नाम मैंने दूरदर्शन पर आने वाले धारावाहिक ब्योमकेश बख्शी से लिया है। उसकी बात फिर कभी।

कोई व्यक्ति हिंदू है तो उसके लिए स्वतंत्र चिंतन और उसकी अभिव्यक्ति में कोई बाधा नहीं आती। अलबत्ता आजकल युवाओं में कुछ कट्टरता अवश्य दिखाई देती है लेकिन उतनी नहीं कि ‘सर तन से जुदा’ के नारे गूंजने लगें।

आपको शायद न पता हो, मुझे पढ़ने वालों में ऐसे लोगों की बड़ी तादाद है जो एक्स-मुस्लिम हैं। वे इस्लाम छोड़ चुके हैं। उन सबकी कहानी में एक बात कॉमन है। वे पूछते हैं कि आज दुनियाभर में अल्लाह और जन्नत के नाम पर मारकाट क्यों मची है। मैं जब कभी पाकिस्तानी मुल्हिद हारिस सुल्तान, गालिब कमाल और एक्स मुस्लिम यास्मीन खान की आलोचना करता हूं तो वे मुझसे बहस करने आ जाते हैं। वे कहते हैं कि आप ये सवाल इन लोगों से क्यों पूछते हैं, अपने ‘भाइयों’ से पूछें।

वे मुझसे सवाल करते हैं कि ‘आपको बार-बार यह लिखने की जरूरत क्यों पड़ती है कि इस्लाम शांति का धर्म है? क्या आपने किसी ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी या हिंदू को बार-बार यह सफाई देते देखा है? उन्हें इसकी जरूरत क्यों नहीं पड़ती?’
उनकी दलीलों का मेरे पास कोई जवाब नहीं होता। इसलिए ऐसे मुस्लिम विद्वानों को आगे आना चाहिए जो समाज में सोचने, समझने, विचार करने और समय के अनुसार सुधार करने का जिम्मा लेकर चलें। साथ ही दुनिया में जहां दीन के नाम पर गलत हो रहा है, उसका खंडन करें। दूसरों के अलग विचारों के प्रति थोड़ी सहनशीलता दिखाएं। अगर कोई अज्ञानवश गलत भी बोले तो उसका जवाब बहुत ही प्रेम और तर्क से दें।

वसीम रिजवी के मामले में मुझे यह भी लगता है कि जिस तरह से उन पर गालियों की बौछार हुई, उसके बाद संभव है कि उन्होंने चिढ़ाने के लिए यह कदम उठाया हो।

जैसा कि मैं पहले उल्लेख कर चुका हूं, कौन ईश्वर/अल्लाह को मानता है, नहीं मानता है, परलोक में कहां जाता है इत्यादि तय करना मेरा काम नहीं है। इसका अधिकार सिर्फ और सिर्फ सर्वशक्तिमान ईश्वर/अल्लाह के पास है। मैं तो मेरे भविष्य में बारे में कुछ नहीं जानता, वसीम रिज़वी या किसी और बारे में क्या कहूं!

क़ुरआन के एक विद्यार्थी के तौर पर मेरा मानना है कि दीन में जबरदस्ती नहीं है। इसलिए अगर वसीम रिजवी को हिंदू धर्म अच्छा लगता है तो उनकी इच्छा का सम्मान किया जाना चाहिए। आप किसी को जबरदस्ती किसी भी धर्म में नहीं रख सकते। अगर आप आख़िरत/परलोक पर विश्वास करते हैं तो अपने बारे में सोचें। आपसे वसीम रिजवी के बारे में पूछताछ नहीं होगी।

गेस्ट ब्लॉगर राजीव शर्मा
(प्रसिद्ध मारवाड़ी लेखक)


Sufi Ki Kalam Se

32 thoughts on “इस्लाम छोड़कर हिंदू क्यों बने वसीम रिज़वी? जानिए राजीव शर्मा की जुबानी…

  1. Pingback: visit this website
  2. Pingback: superkaya88
  3. Pingback: pk789
  4. Pingback: lsm99live
  5. Pingback: PHUKET VILLA
  6. Pingback: sell drugs
  7. Pingback: lnw69
  8. Pingback: KUBET
  9. Pingback: fox888
  10. Pingback: สีทนไฟ
  11. Pingback: โคมไฟ
  12. Pingback: นิยาย
  13. Pingback: 1win
  14. Pingback: 1win
  15. Pingback: Dragon Tiger

Comments are closed.

error: Content is protected !!