हिटलर के सहारे बवाल को कामयाब करने की कोशिश (फ़िल्म समीक्षा)

Sufi Ki Kalam Se

सूफ़ी की क़लम से ..✍🏻

हिटलर के सहारे बवाल को कामयाब करने की कोशिश


जुलाई 2023 में अमेजॉन प्राइम पर रिलीज हुई वरुण धवन और जाह्नवी कपूर स्टारर बवाल भले ही एक औसत फ़िल्म रही हो लेकिन उसकी कहानी पर अगर चर्चा ना की जाए तो ये इतिहास और बॉलीवुड के साथ अन्याय होगा ।
दरअसल नीतेश तिवारी द्वारा निर्देशित यह फ़िल्म केवल मनोरंजन के लिए ना होकर काफ़ी कुछ समझाने के लिये है ।
इतिहास का नाम सुनकर ज़्यादातर लोगो के सामने बोरियत शब्द और बोरिंग अहसास घूमने लगता है और बात जब हिटलर या दूसरे विश्वयुद्ध की हो तो फिर लोग सोचते है की ये तो पढ़ने पढ़ाने वालों का काम है इसमें अपना क्या काम?
लेकिन यहाँ फ़िल्म की कहानी लिखने वाली लेखिका अश्विनी अय्यर तिवारी की दाद देनी होगी जिन्होंने इतिहास में रुचि ना रखने वालों को भी मनोरंजन के तरीक़े से ही सही फ़िल्म से जोड़ दिया है।
फ़िल्म शुरू में तो काफ़ी बोर करती है क्योंकि इसका स्टार्ट, औसत या फ्लॉप फ़िल्मों से भी काफ़ी बुरा होता है लेकिन कहानी धीरे धीरे आगे बढ़ती है तो ऐसा जुड़ाव हो जाता है कि पूरी फ़िल्म देखे बिना उठने का मन भी नहीं करता है ।
अज्जू भैया (वरुण धवन ) जो केवल दिखावे की ज़िंदगी पसंद करते है वह कुछ जुगाड़ करके एक हाई स्कूल में इतिहास शिक्षक की पोस्ट पर पढ़ाने लगते है । वो पैसे देकर नौकरी तो ले लेते है लेकिन जिस ज़िम्मेदारी वाली पोस्ट वो लेते है उस पर खरा नहीं उतरते है लेकिन दिखावे के लिए पूरा इंतज़ाम रहता है । इसी बीच उनकी शादी निशा (जाह्नवी कपूर ) नाम की एक टॉपर लड़की से हो जाती है जो हर खूबियों की मालिक तो है लेकिन एक बीमारी से ग्रसित होती है । वो मिर्गी नामक बीमारी से पीड़ित होती है जिसकी बीमारी फ़िल्म की कहानी में मार्मिकता का अहसास कराती है । उसकी इस बीमारी को देखते हुए अज्जू भैया उसके साथ भी केवल दिखावे का रिश्ता रखते है और बात बात पर तंज भी कसते है ।
कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब अज्जू भैया एक स्टूडेंट के सवाल का जवाब देने की बजाय उसके गाल पर थप्पड़ रसीद कर देते है और वो लड़का एक विधायक का बेटा होता है जिसके चलते अज्जू को एक माह के लिए सस्पेंड कर दिया जाता है लेकिन फिर भी अज्जू भैया अपनी हरकतों से बाज नहीं आते है और दिखावे के लिए यह कहकर यूरोप का सफ़र करने की ठान लेते है की वहाँ से द्वितीय विश्वयुद्ध की लोकेशंस की लाइव स्टडी करवायेंगे । वो अपने पिता से सफ़र के पैसे के लेने के लिए अपनी बीवी को भी साथ लेते है लेकिन उनकी कद्र नहीं करते लेकिन जैसे ही यूरोप में उन्हें अपनी अयोग्यता का अहसास होता है तो उनकी पत्नी ही उन्हें इस मुसीबत से निकालती है ।
अब आते है हिटलर की कहानी पर जो इस फ़िल्म का मुख्य विषय है । हिटलर, जिसका नाम सुनते ही लोगो के दिल ओ दिमाग़ में एक ऐसे क्रूर तानाशाह का नाम सामने आता है जो इंसानियत के नाम पर धब्बा होता है । फ़िल्म में बड़ी ईमानदारी के साथ तत्कालीन इतिहास को दिखाने की कोशिश की है और सबसे बड़ी बात यह होती है कि उस समय के इतिहास को दिखाकर वर्तमान समय के मन के युद्ध पर काफ़ी कुछ समझाने का पर्यास किया गया है । बार बार यह दिखाने की कोशिश की है कि आज का इंसान युद्ध से भले ही त्रस्त ना हो लेकिन अपने अंदर कई तरह के युद्ध समेटे हुए है जो अपने पास सब कुछ होते हुए भी ना कुछ बातों पर परेशान है । विश्वयुद्ध की चपेट में आये हुए लोगो का जीवन दिखाते हुए वर्तमान समय के लोगो के जीवन की तुलना करते हुए यह दिखाने की कोशिश की गई है कि कैसे उन लोगों ने इतना झेलने के बाद भी हिम्मत और ज़िंदादिली से काम लिया था जबकि आज का इंसान केवल अपने आप में परेशान है । फ़िल्म में हिटलर की जेल , यातनाग्रह , संग्रहालय आदि कई जगहों पर काफ़ी अच्छे से प्रकाश डाला गया है । ऐनी फ्रैंक नामक तेरह साल की युवा लड़की की डायरी पर भी काफ़ी कुछ दिखाया गया है जो निश्चित रूप से स्कूल पाठ्यक्रम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है और अभी भी है ।
यह फ़िल्म पढ़ने और पढ़ाने वालों के साथ साथ मनोरंजन के लिए भी एक अच्छी फ़िल्म है ।
@ नासिर शाह (सूफ़ी )
समीक्षक , लेखक एवं स्वतंत्र पत्रकार
9636652786


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29 thoughts on “हिटलर के सहारे बवाल को कामयाब करने की कोशिश (फ़िल्म समीक्षा)

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