नज़्म – वफ़ा के दीपक’ (गेस्ट पॉएट एजाज़ उल हक़ “शिहाब”)

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(नज़्म – वफ़ा के दीपक)

क़ीमती ख़ुशियों से मंसूब दिवाली आई,
ले के कितने हसीं असलूब दिवाली आई,
शम्मा रोशन करो क्या ख़ूब दिवाली आई,
लौट आया मेरा महबूब दिवाली आई,
लाओ मुंडेर पे रख दो ज़रा ला के दीपक।।
आज रोशन करो हर सम्त वफ़ा के दीपक।।।

दीप रोशन करो घर बार सजाओ आओ,
दिल से नफ़रत का ये अहसास मिटाओ आओ,
नग़में अब प्यार के, उल्फ़त के सुनाओ आओ,
आओ मिल जुल के ये त्योहार मनाओ आओ,
प्रेम, सद्भाव के सौहार्द, दुआ के दीपक।।
आज रोशन करो हर सम्त वफ़ा के दीपक।।।

गिरजा, गुरुद्वारा, ये मस्जिद, ये शिवाला रख दो,
मत उठाओ सुनो नफ़रत का ये भाला रख दो,
मुल्क में ला के महब्बत का उजाला रख दो,
अब ग़रीबों के लिए लाओ निवाला रख दो,
अज़्म ओ इंसानियत और हक़ की ज़िया के दीपक।।
आज रोशन करो हर सम्त वफ़ा के दीपक।।।

इस से पहले के महब्बत का ये अहसास कटे,
क़ौमी दंगों में कोई अपना बहुत ख़ास कटे,
दिल से नफ़रत का सुनो पूर्वा आभास कटे,
हक़ की बुनियाद पे इस ज़ीस्त का वनवास कटे,
गूंथ कर प्यार की मिट्टी से बना के दीपक।।
आज रोशन करो हर सम्त वफ़ा के दीपक।।।

धर्म के नाम पे देखो ये सियासत है बुरी,
गर हो इंसान तो हैवानों सी वहशत है बुरी,
वास्ते कुर्सी के ये ख़ूँ की तिजारत है बुरी,
सब ही अपने हैं “शिहाब” अपनों से नफ़रत है बुरी,
बुझ के रहते हैं सुनो झूट, जफ़ा के दीपक।।
आज रोशन करो हर सम्त वफ़ा के दीपक।।।

©️✍️गेस्ट पॉएट एजाज़ उल हक़ “शिहाब”

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