आखिरी दूध
ना स्तनों से दूध आना बंद हो रहा था और ना ही बालक की उम्मीद खत्म हो रही थी।
मां के जिस्म में जान बिल्कुल न थी लेकिन दूध का लगातार रिसना जारी था,
प्राण कब के निकल चुके थे लेकिन बच्चे की खुराक बाकी थी। बच्चे ने मां के स्तनों से रिसती आखिरी बूँदों से अपना पेट भरा और आसमान में देखने लगा। मां का मृत देह ज़मीन पर पड़ा था, अपनी छाती और बाहों में बच्चे को जकड़ा हुआ था। मां खुद भूख से मर चुकी थी लेकिन अपने जिगर के टुकड़े को आखिरी वक्त तक भूख का एहसास नहीं होने दिया।
यह मार्मिक चित्रण सावित्री नाम की एक मजदूर महिला का है जिसका पति पहले ही अकाल मृत्यु का शिकार हो चुका था। पति की मृत्यु के एक माह बाद ही सावित्री ने अपने पहले बच्चे को जन्म दिया था। खाने के लिए एक दिन का भी राशन नहीं था। ना पति का सहारा था और ना कोई सगा संबधी। ना रहने का कोई मकान था ना कोई स्थायी ठिकाना। सावित्री के पास अगर कुछ सम्पत्ति थी तो वह था उसका एक माह का मासूम बच्चा ।
मासूम बच्चे को लेकर वह दर दर भटकती। जो काम मिल जाता कर लेती। कई झाड़ू लगाती तो कई ईंट पत्थर ढोती। जिस स्थिति में सावित्री को प्रसवकाल का सुख उठाकर आराम करना था उसके स्थान पर पहाड़ जैसा बोझ उठा रखा था। देशी घी मिले मेवे खाना तो दूर उसकी खुशबु भी सावित्री को मयस्सर न थी। प्रसवकाल में कोख की जो क्षति हुई थी उसकी पूर्ति तेज धूप में सिर पर भारी पत्थर उठाकर कर रही थी।
तेज धूप में, खुले आसमान में बिलबिलाते बच्चे को लू ने लपेट लिया। सावित्री ने जो कमाया उसे गर्मी की लू अपने साथ बहा ले गई। झुलसाती लू ने, ना सिर्फ सावित्री की कमाई खत्म की थी बल्कि सावित्री के शरीर को भी काफी हद तक जर्जर कर दिया था। जो थोड़ा बहुत कमाया था उससे बच्चे की जान तो बच गई लेकिन सावित्री फिर से कंगाल हो गई थी। अपनी जान हथेली पर रखकर जो कुछ कमाया था वह सब खत्म हो चुका था। अब ना कोई पैसा पास में था और ना सावित्री के शरीर में जान। सिर से लेकर पैर तक सावित्री का शरीर ठंडा पड़ा था। वह उठकर कुछ खाना चाहती ताकि शरीर कुछ काम कर सके और वो अपने बच्चे की देखभाल कर सके लेकिन सावित्री की इस हालत में ना तो उसको कोई काम दे सकता था और ना ही सावित्री के पास खाने का कोई निवाला था। खुले आसमान के नीचे, शहर की चौड़ी सड़क किनारे फुटपाथ पर, एक बेबस और लाचार मां जिंदा होकर भी मुर्दे की तरह लेटी हुई थी। सावित्री का बच्चा दो माह का हो गया था। इन दो महिनों में अगर सावित्री काम ना करती तो शायद उसकी ये हालत ना होती लेकिन अगर काम ना करती तो सम्भवतः जो आज हो रहा है वो दो महिने पहले ही हो चुका होता।
खुद भूखी रहकर भी अपने बच्चे को बगल में दबाया और बड़ी उम्मीद के साथ बच्चे को दूध पिलाना शुरू किया। सावित्री जान गयी थी कि यह उसका आखिरी समय है और लगातार कई दिनों की भूख की वज़ह से उसका ये हाल हुआ है लेकिन वह अपने बच्चे को भूख से नहीं मरने देना चाहती थी। उसने अपने शरीर में बची हुई पूरी ताकत से, बच्चे की तरफ मुड़ते हुए स्तनपान शुरू कराया। जैसे ही बच्चे ने दूध पीना शुरू किया सावित्री ने साँस लेना बंद कर दिया था।
– नासिर शाह (सूफ़ी)
शिक्षक, लेखक एंव स्वतंत्र पत्रकार
सीसवाली जिला बारां राजस्थान
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