टूटने लगा हूं, हां मैं टूटने लगा हूं, गेस्ट पॉएट एम एच खान की कविता

Sufi Ki Kalam Se

टूटने लगा हूं, हां मैं टूटने लगा हूं


गैरों का मलाल नहीं।
अपनों से टूटने लगा हूं।।
हमसफ़र से कतई नहीं ।
उसकी मारूफियत से टूटने लगा हूं।।
औलाद से कभी नहीं।
उनके तेवर समझ से टूटने लगा हूं।।
बच्चों की ज़िद से नहीं।
उनके फैसलों से टूटने लगा हूं।।
अपने कर्मों से नहीं।
नतीजों से टूटने लगा हूं।।
गलतियों से तो नहीं ।
इल्जामो से टूटने लगा हूं।।
जो खता की ही नहीं।
उन सजाओ से टूटने लगा हूं।।
जो मैं हूं ही नहीं।
उन खिताबों से टूटने लगा हूं।।
नज़रों से नहीं “अश्क”
अब खुद से ही टूटने लगा हूं।।

HONEY “ASHQ”
टूटने लगा हूं हां में टूटने लगा हूं

गेस्ट पॉएट एम एच खान DM
RSGSM BARAN

Sufi Ki Kalam Se

19 thoughts on “टूटने लगा हूं, हां मैं टूटने लगा हूं, गेस्ट पॉएट एम एच खान की कविता

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