सूफ़ी की कलम से
विवादों में गुम हो गया तांडव का वर्तमान वास्तविक चित्रण
फिल्मी दुनिया में वेब सीरीज का कारोबार जोरों पर है लेकिन इसी के साथ साथ इनसे जुड़े विवाद भी कम नहीं है। हाल ही में आई नयी वेब सीरीज तांडव भी विवादों की भेंट चढ़ चुकी है। तांडव के पहले सीजन में कुल नो एपिसोड है जिनमे पहले एपिसोड मे एक मिनट के एक दृश्य में कुछ विवादित संवाद परोस दिए जो नहीं होने चाहिए थे लेकिन शायद फिल्मकारों ने भी विवाद को गले लगाने का मन बना लिया है या हो सकता है यह उनके प्रोडक्ट का पब्लिसिटी स्टंट हो। कुछ भी हो लेकिन धार्मिक मामले में हर किसी को ऐसे कामों से दूर रहना चाहिए जिससे कि किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचे।
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निदेशक अली अब्बास ज़फ़र के निर्देशन में बनी तांडव की समीक्षा की जाए तो इस सीरीज में काफी हद तक देश की वर्तमान स्थिति का आईना नजर आता है। पटकथा गौरव सोलंकी ने लिखी है जिसमें उन्होंने देश के वर्तमान राजनीतिक परिवेश और जनता की समस्याओं को बड़ी सुन्दरता के साथ चिन्हित किया है।
कहानी की समस्याएं तो मिली जुली है ही, साथ उनसे जुड़े नाम और संघठन भी काफी हद तक समान दिखाने की कोशिश की है।
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तांडव की कहानी एक राजनीतिक परिवार की कहानी है जिसमें प्रधानमंत्री बनने के लिए एक बेटा समर प्रताप (सैफअली खान) अपने पिता देवकी नंदन (तिगमाशुं धूलिया) का, और एक बीवी अनुराधा किशोर (डिम्पल कपाड़िया) अपने पति की भी सगी नहीं होती और उन्हें मौत के घाट उतार देते हैं। राजनीति पर आधारित यह कहानी पल पल पासे पलटने, स्वार्थ, बेईमानी एंव हिंसा पर आधारित है।
दूसरी और कहानी मे किसान आंदोलन और छात्र आंदोलन पर बड़ी ही खूबसूरती के साथ प्रकाश डाला गया है जिसमें वर्तमान समय का काफी सारा अक्स दिखाई देता है। फिल्म के शुरुआत ही मे किसान आंदोलन को दबाने के लिए तीन मुस्लिम लड़कों का एनकाउंटर करके जनता को मुद्दे से भटकाने का प्रयास किया जाता है, जो आज के दौर में भी आम बात है। किसान आंदोलन से सीरीज का प्रारम्भ होना फिल्म में ऊर्जा का संचार तो करता है लेकिन जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है वैसे वैसे किसानों के मुद्दे को कहानी से ऐसे निकाल कर फेंक दिया जाता है जैसे सब्जी मे से तेज पत्ते को काम पूर्ण हो जाने पर निकाल दिया जाता है।
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छात्र आंदोलन की बात करे तो वो लगभग लगभग जेएनयू कांड की कहानी है। फिल्म मे जेएनयू की जगह वीएनयू (विवेकानंद यूनिवर्सिटी) काल्पनिक नाम दिया गया है। वीएनयू कहानी के मोहम्मद जीशान अयूब (शिवा) के किरदार में छात्र नेता कन्हैया कुम्हार का अक्स देखा जा सकता हैं । शिवा शेखर के साथ ही इमरान और विशाल की कहानी उसी तरह चित्रित करने का प्रयास किया गया है जैसे छात्र नेता उमर खालिद और गुमशुदा छात्र नजीब की वास्तविक कहानी है। एक पुलिस अफसर का यह कहना कि आतंकवादी अब बॉर्डर से नहीं आते बल्कि देश की यूनिवर्सिटीयों मे ही तैयार होते हैं।’ ऐसे संवाद ताजा मामलों की और इशारा करते हुए प्रतीत होते हैं।
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कलाकारों के काम की बात की जाए तो मुख्य अभिनेता सैफ अली खान ने अपने किरदार में शानदार तरीके से जान फूँकी है मगर वो एक महिला नेता के सामने बेबस नजर आते हैं। सिर्फ वही क्यों बल्कि कहानी का हर पुरुष किरदार पहले सीजन के आखिर तक दो महिला किरदारों डिम्पल कपाड़िया (अनुराधा किशोर) और गौहर खान (मैथिली) के सामने कमजोर प्रतीत होते हैं। हालांकि पहला सीजन खत्म होते होते मुख्य नायक वापसी करते दिखते हैं।
अभिनेता सुनिल ग्रोवर, होने को तो हास्य कलाकार है लेकिन इस फिल्म में उन्होंने गुरपाल नामी शख्स का जो संजीदा (गंभीर) किरदार निभाया है वो काबिल ए तारीफ़ है। सम्भवतया सुनील ग्रोवर के लिए ये रोल चुनौती भरा रहा होगा, क्योंकि हमेशा कॉमेडी करते रहने वाले कलाकार अचानक से निर्दोष लोगों को बेदर्दी से मारने वाले विलेन का रोल करे तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है।
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कृतिका कामरा (सना मीर) ने एक तरह से सीरीज में मुख्य अभिनेत्री की भूमिका निभाई है लेकिन सीजन के अंत में एक मुख्य कलाकार की मृत्यु दिखाना, दर्शकों को थोड़ा नीरस कर देता है। साराह (आयशा प्रताप) और सोनाली नागरानी (अदिति मिश्रा) ने सहायक अभिनेत्री के तौर पर ठीक ठाक अभिनय किया है।
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पुरुष किरदारों में प्रोफेसर जिगर (ड़िनो मोरीया) का काम कुछ विशेष नहीं है अगर इस वेब सीरीज में यह किरदार नहीं भी होता तो कोई खास फर्क़ नहीं पड़ता। कैलाश कुमार (अनूप सोनी) ने एक दलित नेता की भूमिका निभाई है जो कहानी की मांग पर आधरित है। कुमुद मिश्रा ने अपने किरदार के साथ शानदार तरीके से न्याय करते हुए गोपालदास के किरदार में जबरदस्त जान फूँकी है।
कहानी थोड़ी धीमी है लेकिन दर्शकों को बांधे रखने मे कामयाब है। एक कहानी मे काफी कहानियां शामिल हैं इसलिए बीच बीच में थोड़ा झोल भी नज़र आता है लेकिन सभी कहानियाँ एक ही केंद्र बिंदु (राजनीति) पर आधारित होने की वजह से जुड़ी हुई नजर आती है हालांकि एक प्रधानमंत्री पद के दावेदार का एक मामूली छात्रनेता की नेतागिरी में इन्टरफेर करना दर्शकों के गले नहीं उतर पाया। फ़िल्म का एक जोरदार पहलू यह भी है कि इसकी शूटिंग अभिनेता सैफ अली खान के गुड़गाँव स्थित पटौदी हाउस में की गई है जिससे भी दर्शकों का रूझान इस और काफी बढ़ा है।
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कहानी में काफी सस्पेंस छोड़ा गया है क्योंकि अभी सिर्फ एक सीजन रिलीज हुआ है। उम्मीद है कि अगले सीजन की कहानी दर्शकों की उम्मीद के मुताबिक हो और विवादों से बिल्कुल दूर हो।
– नासिर शाह (सूफ़ी)
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